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सोमवार, 5 अगस्त 2013

वीरेन डंगवाल और उनकी चार कविताएँ — अवनीश सिंह चौहान

वीरेन डंगवाल 

आज आदरणीय वीरेन डंगवाल जी का जन्मदिन है। उन्हें हमारी ओर से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। पूर्वाभास के पाठकों के लिए उनकी कुछ कविताएँ यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। साथ में उनका परिचय भी। कहा जाता है कि डंगवाल जी ने बाईस वर्ष की उम्र में पहली रचना लिखी थी और लगभग तीस वर्ष की आयु में ही वे हिन्दी जगत में चर्चित हो गए थे। उनकी रचनाओं से जहाँ पढ़े-लिखे कलमकार की छवि उभरती है, वहीं इनकी सहजता एवं स्पष्टता सहृदय पाठकों को कविता का मर्म समझने में मदद करती है। 

5 अगस्त 1947 को कीर्तिनगर, टेहरी गढ़वाल, उत्तराखंड में जन्मे डंगवाल जी ने मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली, नैनीताल और अन्त में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा (हिन्दी में एम ए, डी फिल) प्राप्त की। 1971 से बरेली कॉलेज में हिन्दी के प्रोफ़ेसर; पत्रकारिता से गहरा रिश्ता। ह्रदय से कवि एवं लेखक। एक अच्छे- सच्चे इंसान। पत्नी रीता जी भी शिक्षक। आपके दो बेटे प्रशांत और प्रफुल्ल कारपोरेट अधिकारी हैं। 

आपने पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख्त, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊश रोजेविच और नाज़िम हिकमत के अपनी विशिष्ट शैली में कुछ दुर्लभ अनुवाद भी किए हैं। आपकी स्वयं की कविताएँ बाँग्ला, मराठी, पंजाबी, अंग्रेज़ी, मलयालम और उड़िया में अनूदित हो चुकी हैं। प्रकाशित कृतियाँ: कविता संग्रह- 'इसी दुनिया में', दुष्चक्र में सृष्टा तथा स्याही ताल पुरस्कार व सम्मान: रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (१९९२), श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1994), 'शमशेर सम्मान' (2002), साहित्य अकादमी सम्मान (2004)

Art by  Vishal Bhuwania 
1. कुछ कद्दू चमकाए मैंने 

कुछ कद्दू चमकाए मैंने
कुछ रास्तों को गुलज़ार किया
कुछ कविता-टविता लिख दीं तो
हफ़्ते भर ख़ुद को प्यार किया

अब हुई रात अपना ही दिल सीने में भींचे बैठा हूँ
हाँ जीं हाँ वही कनफटा हूँ, हेठा हूँ
टेलीफ़ोन की बग़ल में लेटा हूँ
रोता हूँ धोता हूँ रोता-रोता धोता हूँ
तुम्हारे कपड़ों से ख़ून के निशाँ धोता हूँ

जो न होना था वही सब हुवाँ-हुवाँ
अलबत्ता उधर गहरा खड्ड था इधर सूखा कुआँ
हरदोई मे जीन्स पहनी बेटी को देख
प्रमुदित हुई कमला बुआ

तब रमीज़ कुरैशी का हाल ये था
कि बम फोड़ा जेल गया
वियतनाम विजय की ख़ुशी में
कचहरी पर अकेले ही नारे लगाए
चाय की दुकान खोली
जनता पार्टी में गया वहाँ भी भूखा मरा
बिलाया जाने कहॉ
उसके कई साथी इन दिनों टीवी पर चमकते हैं
मगर दिल हमारे उसी के लिए सुलगते हैं

हाँ जीं कामरेड कज्जी मज़े में हैं
पहनने लगे है इधर अच्छी काट के कपडे
राजा और प्रजा दोनों की भाषा जानते हैं
और दोनों का ही प्रयोग करते हैं अवसरानुसार
काल और स्थान के साथ उनके संकलन त्रय के दो उदहारण
उनकी ही भाषा में :
" रहे न कोई तलब कोई तिश्नगी बाकी
बढ़ा के हाथ दे दो बूँद भर हमे साकी "
"मजे का बखत है तो इसमे हैरानी क्या है
हमें भी कल्लैन दो मज्जा परेसानी क्या है "

अनिद्रा की रेत पर तड़ पड़ तड़पती रात
रह गई है रह गई है अभी कहने से
सबसे ज़रूरी बात।

2. अकेला तू तभी 

तू तभी अकेला है जो बात न ये समझे
हैं लोग करोडों इसी देश में तुझ जैसे

धरती मिट्टी का ढेर नहीं है अबे गधे
दाना पानी देती है वह कल्याणी है
गुटरू-गूँ कबूतरों की, नारियल का जल
पहिये की गति, कपास के ह्रदय का पानी है

तू यही सोचना शुरू करे तो बात बने
पीडा की कठिन अर्गला को तोडें कैसे!

3. पत्रकार महोदय

'इतने मरे' 
यह थी सबसे आम, सबसे ख़ास ख़बर 
छापी भी जाती थी 
सबसे चाव से 
जितना खू़न सोखता था 
उतना ही भारी होता था 
अख़बार। 

अब सम्पादक 
चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी 
लिहाज़ा अपरिहार्य था 
ज़ाहिर करे वह भी अपनी राय। 
एक हाथ दोशाले से छिपाता 
झबरीली गरदन के बाल 
दूसरा 
रक्त-भरी चिलमची में 
सधी हुई छ्प्प-छ्प। 

जीवन 
किन्तु बाहर था 
मृत्यु की महानता की उस साठ प्वाइंट काली 
चीख़ के बाहर था जीवन 
वेगवान नदी सा हहराता 
काटता तटबंध 
तटबंध जो अगर चट्टान था 
तब भी रेत ही था 
अगर समझ सको तो, महोदय पत्रकार !

4. प्रेम कविता 

प्यारी, बड़े मीठे लगते हैं मुझे तेरे बोल !
अटपटे और ऊल-जुलूल 
बेसर-पैर कहाँ से कहाँ तेरे बोल !

कभी पहुँच जाती है अपने बचपन में 
जामुन की रपटन-भरी डालों पर 
कूदती हुई फल झाड़ती 
ताड़का की तरह गुत्थम-गुत्था अपने भाई से 
कभी सोचती है अपने बच्चे को 
भाँति-भाँति की पोशाकों में 
मुदित होती है 

हाई स्कूल में होमसाइंस थी 
महीने में जो कहीं देख लीं तीन फ़िल्में तो धन्य ,
प्यारी 
गुस्सा होती है तो जताती है अपना थक जाना 
फूले मुँह से उसाँसे छोड़ती है फू-फू 
कभी-कभी बताती है बच्चा पैदा करना कोई हँसी-खेल नहीं 
आदमी लोग को क्या पता 
गर्व और लाड़ और भय से चौड़ी करती ऑंखें 
बिना मुझे छोटा बनाए हल्का-सा शर्मिन्दा कर देती है 
प्यारी 

दोपहर बाद अचानक उसे देखा है मैंने 
कई बार चूड़ी समेत कलाई को माथे पर 
अलसाए 
छुप कर लेटे हुए जाने क्या सोचती है 
शोक की लौ जैसी एकाग्र 

यों कई शताब्दियों से पृथ्वी की सारी थकान से भरी 
मेरी प्यारी !

HINDI POEMS OF VIREN DANGAWAL

1 टिप्पणी:

  1. वीरेन डंगवाल जी की प्रेम -कविता बेजोड़ लगी ..यों कई शताब्दियों से पृथ्वी की सारी थकान से भरी
    मेरी प्यारी !..इन पंक्तियों ने रचना को अद्भुत बना दिया ...वाह ..बहुत सुन्दर ..बधाई !!

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