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रविवार, 6 अप्रैल 2014

ओम धीरज और उनके पाँच नवगीत — अवनीश सिंह चौहान

ओम धीरज

ओम धीरज हिन्दी गीत साहित्य के उन गिने-चुने कवियों में से एक हैं जो प्रशासन में रहते हुए जनता की आवाज़ को बुलन्द कर रहे हैं। लोक भाषा और मुहावरों की चासनी में पगे आपके गीत जन-जीवन के विविध आयामों को बड़ी बारीकी से प्रस्तुत करते हैं। आपके गीतों में जहाँ प्राकृतिक छटाओं का सुन्दर चित्रण है वहीं गॉँव-गिराँव, खेत-खलिहान, नगर-महानगर, राजनीति-काजनीति के मिश्रित स्वरों को भी महसूस किया जा सकता है। मिलनसार, सहज, मृदुभाषी एवं वैरागी ओम धीरज का जन्म 15 मार्च सन् 1958 को ग्राम भदौरा, पत्रालय मौधिया, जनपद गाजीपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ। प्रकाशित कृतियां : बेघर हुए अलाव, 2004 एवं सावन सूखे पाँव, 2012 ( दोनों गीत संग्रह) । आपके अनेक गीत रेत में बहता जल, 1997; यादें अतीत की, 2001; पूर्वाचल की मांटी, 2002; गोमती के स्वर, 2004; नवगीत नई दस्तकें, 2009; नवगीत के नये प्रतिमान, 2012; शब्दायन, 2012; गीत वसुधा, 2013 आदि समवेत संकलनों में प्रकाशित हो चुके हैं। प्रो वशिष्ठ अनूप (बीएचयू) की आलोचना पुस्तक गीत का आकाश (2010) के एक प्रतिनिधि गीतकार धीरज जी ने अक्षर सुमन (केराकत जौनपुर के 36 कवियों का संकलन-वर्ष (1996), चन्दौली कल और आज (जनपद महोत्सव 2003 की दस्तावेजी स्मारिका) का संपादन किया है और हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका सबके दावेदार (आजमगढ़) के सलाहकार सम्पादक हैं। आपको उ.प्र. हिन्दी संस्थान लखनऊ का नामित निराला पुरस्कार (धनराशि 40,000/-) सहित कई अन्य सम्मानों से विभूषित किया जा चुका है। वर्त्तमान में आप उ.प्र. पी.सी.एस. अधिकारी के रूप में सेवारत हैं। संपर्क : 67 / 45, छोटा बगहारा, प्रयाग, इलाहाबाद- 211002 । मोब : 09415270194।

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
1. अब खोलो स्कूल

अब खोलो स्कूल कि,
शिक्षा भी तो बिकती है 

भवन-पार्क 'गण वेश’
आदि सब सुन्दर भव्य बनाओ,
बच्चो में सपने बसते हैं 
उनको तुरत भुनाओ, 
वस्तु वही बिकती है जो कि
अक्सर दिखती है

गुणवत्ता से भले मुरौव्वत
नहीं दिखावट से, 
विज्ञापन की नाव तैरती 
शब्द सजावट से,
गीली लकड़ी गर्म आँच में 
भी तो सिंकती है 

बेकारों की फौज बड़ी है 
उनमें सेंध लगाओ, 
भूख बड़ी है हर ’डिग्री’ से 
इसका बोध कराओ, 
शोषण की पटकथा सदा ही 
पूँजी लिखती है।

2. तन्त्र की जन्म कुण्डली लिखते

थोड़े बहुत बूथ पर लेकिन
नहीं सड़क पर दिखते, 
सन्नाटों के बीच ’तन्त्र’ की 
जन्म कुण्डली लिखते 

कलम कहीं पर रूक-रूक जाती 
मनचाहा जब दीखे, 
तारकोल से लिपे चेहरे 
देख ईंकं भी चीखे, 
सूर्य चन्द्र-से ग्रह गायब है, 
राहु केतु ही मिलते 

कथनी-करनी बीच खुदी है 
कितनी गहरी खाई, 
जिसे लाँघते काँप रही है 
अपनी ही परछाई, 
अब तो लाल-किताब छोड़कर 
नयी संहिता रचते

चूहा छोटा जाल काटता 
शेर मुक्त हो जाता, 
व्यक्ति बड़ा है ग्रह गोचर से 
यह अतीत बतलाता, 
लोक तंत्र में एक वोट से 
तख्त ताज भी गिरते

’मत चूक्यो चैहान’ कहा था, 
कभी किसी इक कवि ने, 
अंधकार से तभी लड़ा था 
दीपक जैसे रवि ने, 
’साइत नही सुतार’ देखिए 
लोक-कथन यह कहते।

3. महिला ऐसे चलती 

आठ साल के बच्चे के संग 
महिला ऐसे चलती, 
जैसे साथ सुरक्षा गाड़ी 
लप-लप बत्ती जलती 

बचपन से ही देख रही वह 
यह विचित्र परिपाटी,
पुरूष पूत है लोहा पक्का 
वह कुम्हार की माटी , 
’बूँद पड़े पर गल जायेगी’ 
यही सोचकर बढ़ती, 
इसीलिए वह सदा साथ में 
छाता कोई रखती

बाबुल के आँगन में भी वह 
यही पाठ पढ़ पाती, 
भाई लालटेन 
बहना ढिवरी की इक बाती , 
’फूँक लगे पर बुझ जाये’ 
वह इसी सोच में पलती , 
ठोस बड़ी कन्दील सरीखी 
बूँद-बूँद सी गलती 

प्याले शीशे पत्थर के वे, 
वह माटी का कुल्हड़ , 
उसके जूठे होने का 
हर वक्त मनाएँ हुल्लड़ 
सदा हुई भयभीत पुरूष से, 
पुरूष ओट वह रखती , 
सीता-सी, रावण-पुरूषों के
बीच सदा तृण रखती ।

4. मैं समय का गीत 

मै समय का गीत 
लिखना चाहता, 
चाहता मैं गीत लिखना आज भी

जब समय संवाद से है बच रहा
हादसा हर वक्त कोई रच रहा
साथ अपनी छोड़ती परछाईयाँ 
झूठ से भी झूठ कहता सच रहा
शत्रु होते
इस समय के पृष्ठ पर 
’दूध-जल’-सा मीत लिखना चाहता

जाल का संजाल बुनती उलझनें,
नीड़ सपनों के अभी हैं अधबुने
हाथ में हैं हाथ जिनके हम दिये 
गाय की माने बधिक ही वे बने 
अब गुलामी
के बने कानून की 
मुक्ति का संगीत लिखना चाहता 

बाड़ ही जब बाग को है खा रहा
पेड़ आरे का पॅवारा गा रहा
आग लेकर अब हवाएँ आ रहीं
दृश्य फिर भी हर किसी को भा रहा
हट सके गाढ़े
तिमिर का आवरण
आत्मचेता दीप लिखना चाहता 

जब सहोदर रक्त के प्यासे बने
माँ-पिता भी जैविकी खाॅचे बने 
जिदंगी क्लब के जुआघर में बिछी
नेह के रिश्ते जहाँ 'पासे’ बने
मर रहे आँसू 
नयन के कोर में
मैं सजल उम्मीद लिखना चाहता।

5. हम कदम ढूँढे कहीं

उम्र अब अपना असर
करने लगी,
अब चलो,
कुछ हम कदम ढूढ़ें कहीं

साथ दे जो
लड़खड़ाते पाँव को,
अर्थ दे जो
डगमगाते भाव को,
हैं कहाँ ऊँचा
कहाँ नीचा यहाँ,
जो ठिठक कर
पढ़ सके हर ठाँव को,
जब थकें तो साथ दे
कुछ बैठकर,
अब चलो,
यूं हम सफर ढूढ़ें कहीं

जब कभी पीछे
मुड़ें तो देख ले, 
दर्द घुटने की 
हथेली सेक ले,
जब कभी भटके
अंधेरों की गली,
हाथ पकड़े
और राहें रोक लें
दृष्टि धुँधली 
हो तो खोले, याद की 
खिड़कियाँ 
जो हर तरफ, ढूढे कहीं।

स्वार्थ की जो गांठ 
दुबली हो गयी,
मन्द पड़ती
थाप ढपली हो गयी,
माँज लें, उसको
अंगुलियाँ थाम कर,
नेह की
जो डोर पतली हो गयी,
पोपले मुंह 
तोतलों की बतकही
सुन सके, जो व्यक्ति
वह ढूढे कहीं।

Om Dheeraj ke Panch Geet

4 टिप्‍पणियां:

  1. ओम धीरज के ये गीत सचमुच बेहद अच्छॆ हैं। इनके कुछ और गीत पढ़ने की इच्छा है।

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  2. Flow of language and choice of words are natural and par excellence.Every Geet is based on a theme and carries a message. Once you start reading ,you will not stop without completing it.I am touched by the description of plight of women in the society in the " MAHILA AISE CHALTI".Wonderful creations!!!!!

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