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शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

... और, बेटी लौट आयी - आचार्य देवेन्द्र कुमार 'देव'


​​एकादश महाकाव्यों के रचयिता आचार्य देवेन्द्र कुमार 'देव' का जन्म 06 अक्टूबर, 1952 ई. को पूरनपुर (पीलीभीत) में हुआ। शिक्षाः-एम.ए. (संस्कृत), विद्या-वाचस्पति। सम्मानः पानीपत साहित्य अकादमी (हरियाणा) से ‘आचार्य’ की मानद उपाधि, अमेरिकी संस्था ‘ए.बी.आई.’ द्वारा ‘इन्टरनेशनल डिस्टिंग्विश्ड लीडरशिप अवार्ड-1998 एवं उसके ‘रिसर्च बोर्ड ऑफ एडवाइज़र्स के मानद सदस्य, अखिल भारतीय हिन्दी विधि प्रतिष्ठान, पीलीभीत द्वारा सम्मानित, ‘ग्यारहवें विश्व हिन्दी सम्मेलन, मॉरीशस’ के कवि-सम्मेलन में भारत सरकार के विदेश मन्त्रालय के अन्तर्गत सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद द्वारा राष्ट्रीय कवि के रूप में प्रतिभाग, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ द्वारा वर्ष 2018 में ‘राष्ट्रपुत्र यशवन्त’ महाकाव्य पर रु. पिचहत्तर हज़ार का नामित ‘तुलसी सम्मान/पुरस्कार’, जोवियल फाउन्डेशन यूनिवर्सल ट्रस्ट, बरेली द्वारा ‘लाइफ टाइम अचीवमेन्ट पुरस्कार’, दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी (संस्कृति मन्त्रालय, भारत सरकार) द्वारा डेढ़ लाख रुपये का ‘महर्षि दधीचि सम्मान/पुरस्कार-2018’, ‘दशवें विश्व हिन्दी सम्मेलन, भोपाल’ के कवि-सम्मेलन में राष्ट्रीय कवि के रूप में प्रतिभाग, सदस्य, साहित्य पुरस्कार समीक्षा समिति, उ.प्र. हिन्दी संस्थान, सदस्य, साहित्य पुरस्कार समीक्षा समिति, हिमाचल प्रदेश कला संस्कृति भाषा अकादमी, शिमला (हि.प्र.) आदि। देश-विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ/समीक्षाएँ प्रकाशित। सम्पादन: तराई उजाला (साप्ताहिक), ‘पंकज पराग’, ‘रणन्जय-रश्मि’, ‘इस धरा पर स्वर्ग का अवतरण होना है सुनिश्चित’, ‘ब्रजांजलि’ (स्मारिकाएँ) एवं 'हिन्दूपति महाराणा प्रताप' (महाकाव्य)। प्रसारण: आकाशवाणी के रामपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, आगरा, बरेली, मथुरा और दिल्ली केन्द्र तथा लखनऊ, बरेली दूरदर्शन व डी डी उ.प्र. चैनल पर प्रसारण। प्रकाशित कृतियाँ: ‘वन्दे भारतम्’, ‘स्वातन्य-वीर शतक’, ‘सन्नाटा मत बुनो’, ‘बाँग्ला-त्राण’, ‘कथाएँ व्यर्थ हो गयीं’, ‘अश्रु ढले, गीत बने’, ‘गायत्रेय’, ‘युवमन्यु’ (महाकाव्य), ‘हमारी बात बे-मानी नहीं है’ (ग़ज़ल-संग्रह), ‘हँस पड़े पलाश’ (गीत-संग्रह), ‘आवाज़ दे रहा महाकाल’ (प्रज्ञा-बोध-गीत-संग्रह), ‘राष्ट्र-पुत्र यश-वन्त’, 'कैप्टन बाना सिंह’, ‘हठयोगी नचिकेता’, ‘बलि-पथ’, ‘इदं राष्ट्राय’, ‘अग्नि-ऋचा’, ‘पं. रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ (महाकाव्य)। शीघ्र प्रकाश्य कृतियाँ: ‘शंख महाकाल का’, ‘लोक-नायक’, ‘बिरसा मुण्डा’, ‘ब्रह्मात्मज’, ‘लौह-पुरुष’, ‘पीढ़ियाँ मज़बूर हैं’ (ग़ज़ल-संग्रह) आदि। सम्प्रति: अर्धशासकीय सेवा से निवृत्त। दायित्व: संरक्षक-स्वस्तिमान, वातायन, देवनागरी उत्थान परिषद (पूरनपुर), रंजन पब्लिकेशन, बरेली, सूर्यांशी कला संस्थान, झाँसी एवं दिव्यार्थ फाउण्डेशन, फ़रीदाबाद (हरियाणा), अखिल भारतीय सह साहित्य-संयोजक, संस्कार भारती। सम्पर्क-सूत्रः ‘माल-द्वीप’, 44-उमंग, भाग-2, महानगर टाउनशिप, बरेली (उ.प्र.)-243006, मोबा.: 94128-70495, 91493 54944, ई-मेल: dev.devendra2008@gmail.com।

चण्डीगढ़ की पाश कालोनी के मध्य बना एक बड़ा-सा पार्क। रात्रि के आठ-साढ़े आठ  बजने वाले थे, कुलश्रेष्ठ जी के टहलमन्द सभी साथी कब के अपने-अपने घर जा चुके थे किन्तु कुलश्रेष्ठ जी अब भी एक कोने में पड़ी बेंच पर अधपड़े-से बैठे थे। उनका पार्क से जाने का मन ही नहीं कर रहा था। कल भी ऐसा ही हुआ था और आज सुबह भी। वह नौ बजे तक पार्क के दक्षिणी किनारे पर पड़ी बेन्च पर बैठे रहे थे, गुमसुम-से, निर्वाक्, निःशब्द।

पार्क की उसी दिशा में, लेन के उस पार बनी बड़ी-सी कोठी के दूसरे तल पर रहने वाले श्रीवास्तव जी,जो रेलवे के रिटायर्ड इंजीनियर थे, जब खाना खाकर बाहर छत की बालकनी में टहलने आये तो उनकी दृष्टि बेंच पर उदास बैठे हुए कुलश्रेष्ठ जी पर पड़ी। वह पिछले कई दिनों से उनको आब्ज़र्ब कर रहे थे। नहीं रहा गया तो नीचे उतरकर चहलकदमी करते हुए बाबू जी के पास पहुँचे।
          
आते ही बोले-'क्यों बड़का बाबू! क्या बात है? अभी तुम घर नहीं गये?'
          
चूँकि कुलश्रेष्ठ जी नगर निगम के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी के पद से रिटायर हुए थे, इसलिए पार्क में नियमित घूमने वाले सभी साथी उन्हें 'बाबू जी' कहकर ही सम्बोधित करते थे और उनके विनोदमिश्रित गम्भीर स्वभाव के कारण बड़ा आदर भी करते थे।प्रौढ़ और वृद्धार्ध वे साथी लोग अपने घरेलू टेंशन जब कभी पार्क की आन्तरिक गोष्ठियों में रखते तो बाबू जी ही एक मात्र ऐसे व्यक्ति थे जो सरलतम निदान सुझाकर उन्हें टेंशनफ्री करते थे। उन्हीं बाबू जी को दो तीन दिन से चिन्तामग्न देखकर श्रीवास्तव जी से नहीं रहा गया और वे नीचे उतर आये थे। 
        
कुलश्रेष्ठ जी, अप्रत्याशित रूप से श्रीवास्तव जी को सामने देखकर सकपका गये।बोले 'नहीं यार, 'बस ऐसे ही।जाऊँगा, सोचा थोड़ा और बैठ लूँ। कोई विशेष बात नहीं।'
         
'विशेष बात कैसे नहीं? दो तीन दिन से मैं देख रहा हूँ। न वैसी कुलाँचे मारते हो, न पहले-सी ठल्लेबाजी। सब टहल-टहलाकर चले जाते हैं और तुम सुबह हो या शाम,ऐसे ही मौन साधकर यहाँ बैठे रहते हो। कभी इस बेंच पर तो कभी उस पर। सच बताओ, क्या बात है? क्या भाभी जी की याद ज़ास्ती सता रही है?
         
'हाँ यार, है तो कुछ ऐसा ही।' बाबू जी बेसाख़्ता बोल पड़े।

'अरे छोड़ो यार, उनका टाइम आया, चली गयीं।हमारा- तुम्हारा टाइम आएगा,हम तुम भी चल देंगे। जब वहाँ पहुँचेंगे फिर अपनी-अपनी से मिल लेंगे। इस दुःख में डूबा कब तक जाए?' बोले श्रीवास्तव जी जिनकी पत्नी अभी हाल गुज़र गयी थीं।
    
"नहीं, वह बात नहीं।' असमंजस में पड़े कुलश्रेष्ठ जी बोले'
    
'फिर और क्या बात है? अच्छा चलो, मेरे घर चलो। उठो। चलकर दो घूँट मारो,साली सब टेंशन उड़न छू हो जाएगी' इंजीनियर बोले।
     
'नहीं, महराज, मुझे क्षमा करो। मैं चला अपने ठिकाने।'
कहकर कुलश्रेष्ठ जी झटके से उठे, धन्यवाद कहते हुए हाथ मिलाया और आ गये अपने घर, अपने कमरे में। हाथ-मुँह धोया और टी.वी. खोलकर समाचार देखने-सुनने लगे।
        
दस मिनट के बाद उनका सात वर्षीय पौत्र युवान पूछने आयाः-'बाबा सा, मम्मी पूछ रही हैं खाना लगा दें?'
      
'ले आओ' यद्यपि मन नहीं था फिर भी उन्होंने स्वीकृति दे दी।
       
एकाध रोटी के आठ-दस कौर जैसे-तैसे गले में उतारकर कुलश्रेष्ठ जी ने बाहर छत के खुले मैदान में चार चक्कर लगाये, लौटकर टेबुल पर रखा दूध पिया और ए.सी. खोलकर चारपाई पर लेट गये। चैन नहीं पड़ा तो उठकर फिर सोफे में धँसकर अतीत में डूब गये।
       
कुछ रोज से उन्हें वास्तव में अपनी पत्नी मोना की बहुत याद आ रही थी। अपने लिए नहीं, अपने परिवार के लिए। चौदह वर्ष पहले जब अचानक मोना संसार छोड़कर गयी थी, तो कुलश्रेष्ठ जी की आयु बावन वर्ष थी। परिवार में सबसे बड़ी बेटी की शादी हो चुकी थी। उसके बाद बड़े बेटे को ब्याहने के बाद प्यारी-सी बहू तान्या जब घर में आयी, तो मोना के पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ते थे। यद्यपि वह अधिक शिक्षित नहीं थीं किन्तु डाक्टर बेटे की एम.एससी. बहू का महत्व समझती थीं। छोटा बेटा कुशाग्र उस समय मेरठ से बी.टेक कर रहा था और सबसे छोटी बेटी ट्विंकी नवीं कक्षा में थी। यद्यपि बड़ी बेटी टिंगी और डाक्टर बेटा उत्तम भी मोना को बहुत प्रिय थे किन्तु दोनों छोटे बच्चों, कुशाग्र व ट्विंकी का वह स्वाभाविकरूप से विशेष ख़्याल रखती थीं। यहाँ तक कि उनके प्राणाधिक प्रिय पतिदेव कुलश्रेष्ठ जी भी उनके बनिस्बत पझारुओं में गिने जाने लगते थे किन्तु उन्हें अपनी स्थिति और उसकी पृष्ठभूमि में डूबने पर बड़ा सुख मिलता था।
       
कालचक्र के वशीभूत, इन परिजनों के अतिरिक्त, सात माह के पौत्र रमन को अपनी गोद में दुलारकर मोना एक दिन अचानक संसार से विदा ले गयीं। उनके निधन से अत्यधिक विषादग्रस्त कुलश्रेष्ठ की, रात के एकान्त में सिसकियाँ बढ़ते-बढ़ते आर्तनाद में बदल जाती थीं। बच्चे अपने मम्मी-पापा की पारस्परिक प्रीति को समझते थे और उसे मान भी देते थे।इसलिए पापा की चीखों को नियन्त्रित करने के लिए बच्चों, मतलब बड़ी बेटी टिंगी और बेटा-बहू ने सात महीनों का शिशु युवान उनके पास लिटाना शुरू किया। उनका यह प्रयोग सफल भी रहा। पौत्र की नींद न खुल जाय, इस भय से कुलश्रेष्ठ जी अपने वियोगजन्य दुःख पर धीरे-धीरे नियन्त्रण पाने लगे। बच्चों का यह क्रमिक प्रयोग निरन्तर चार वर्ष तक चला।शनैः-शनैः कुलश्रेष्ठ जी,अपनी नौकरी में, घर-गृहस्थी और अपनी विधा में रम गये।
       
कुशाग्र अब इंजीनियर के रूप म़े चण्डीगढ़ स्थित एक अच्छी कम्पनी में नौकरी पा गया था। ट्विंकी भी इंटर में आ गयी थी।कुलश्रेष्ठ जी एक सप्ताह के आध्यात्मिक शिविर में दीदी माँ ऋतम्भरा जी के वात्सल्य ग्राम में आये हुए थे।उनकी बड़ी बेटी टिंगी मथुरा में थी ही।
    
अचानक कुलश्रेष्ठ जी को मौसेरे भाई के माध्यम से सूचना मिली कि कुशाग्र के विवाह के सम्बन्ध में कोई सज्जन उनसे मिलना चाहते हैं। कुछ सोच विचारकर उन्होंने दो दिन के बाद बेटी के मथुरा स्थित निवास पर मिलने का समय दे दिया।
        
अगले तीसरे दिन, सत्तर-पिचहत्तर वर्ष के एक सज्जन अपने दो बेटों के साथ मिलने आये। पता चला बुज़ुर्गवार बेटी के नाना जी हैं। बात प्रारम्भ हुई। लड़की दून्या के बारे में बताया गया कि वह अंग्रेज़ी से एम.ए.और बी.एड्. है। पिता डीग में लेक्चरार हैं। दो भाइयों के बीच अकेली बहन है।
        
उन दिनों कुशाग्र, जो वृन्दावन में कृपालु जी महाराज के आश्रम में कोई ऑटोमेशन का प्रोजेक्ट कम्पनी की ओर से देख रहा था, भी आया हुआ था। उसे भी बुला लिया गया। अगले दिन लड़की भी अपने परिवार के साथ मथुरा आ गयी। परस्पर पारिवारिक परिचय हुआ, बात-चीत हुई और सम्बन्ध तय हो गया। अगले वर्ष नवम्वर की तिथि भी छँट गयी।
        
मथुरा में, लग्न-मण्डप में बैठते समय अपनी माँ का चित्र सामने देखकर कुशाग्र जिस विकलता से बिलखा और पिता से लिपटकर जिस प्रकार उसने दहाड़ें मारनी शुरू कीं, उससे गुरु-गम्भीर स्वभाव वाले कुलश्रेष्ठ जी तो विचलित हो ही गये थे,आस-पास खड़े परिजन, नाते-रिश्तेदारों को भी स्वयं को सँभालना मुश्किल हो गया था।सबकी आँखों के शिकारे तैरने लगे। उन भावुक घड़ियों को याद कर सोफे में बैठे कुलश्रेष्ठ जी एक बार फिर मौन चीत्कार भरने लगे थे और भरते रहे। इसी बीच थककर सोफे पर ही पड़े-पड़े उनकी कब आँख लग गयी, उन्हें पता ही नहीं चला।
      
दो दिनों बाद सुबह साढ़े सात बजे, पार्क में लौटकर कुलश्रेष्ठ जी ज़ीना चढ़कर ऊपर आये ही थे कि उन्हें किचन से फिर वही चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें आने लगीं। बेटा कुशाग्र डाँट-डपटकर कोई बात पूछ रहा था और उसकी सुशिक्षित पत्नी दून्या, तू-तड़ाक के साथ उलटे-सीधे जवाब देते हुए, अनाप-शनाप बोले जा रही थी।दोनों का छः वर्ष का प्यारा-सा बेटा युवान स्कूल ड्रेस में खड़ा,  एक-एक कर, अपने पापा-मम्मी का क्रोधावेशित मुँह अत्यन्त निरीहतापूर्वक देखे जा रहा था। 
        
कुलश्रेष्ठ जी को देखकर वह उनके पास दौड़कर आया बोलाः- बाबा सा, देखो मम्मी-पापा आज फिर झगड़ा कर रहे हैं। चलके उन्हें डाँटो।
          
कुलश्रेष्ठ जी, जिनको आजकल चलने में कुछ कष्ट था, जल्दी से किचन में गये और डाँटते हुए कुशाग्र को पकड़कर बाहर लाये। बहू दून्या अब भी ज़ोर-ज़ोर से बड़-बड़ किये जा रही थी। बेटे को समझा-बुझाकर उसके कमरे में धकेल दिया और कमरे में आकर कुलश्रेष्ठ जी फिर सोफ़े पर निढाल पड़ गये पौत्र को अपने पास बैठाकर दुलार करने लगे।
       
वह बोले जा रहा था 'जाने क्यों मम्मी-पापा लोल्लोज ललाई कलते हैं। छमन्नई आता। मैं तो बला पलेछान हूँ।'
       
कुलश्रेष्ठ जी उस बालक के मन की वेदना समझते थे।      दर असल वह और उनकी पत्नी मोना एक-दूसरे पर जान छिड़कते थे।पैंतीस वर्षों के वैवाहिक जीवन में एक भी ऐसी क्लेशकारी घटना नहीं थी जो मोना को भुलाने या उससे विरक्त करने की दिशा में कुलश्रेष्ठ जी की सहायता करती। यह बात बच्चे भी ख़ूब अच्छी प्रकार जानते थे। इसी कारण वे अपने पापा का इतना ख़्याल रखते थे कि मम्मी की याद उन्हें, दुःखों के सन्दर्भ में, कभी न आये। 
      
छोटी बेटी ट्विंकी का भी विवाह छःसात वर्ष पूर्व हो गया था। वह भी अपनी ससुराल में प्रसन्न थी। कुलश्रेष्ठ जी अपने मित्रों से बड़े गर्वपूर्वक कहा करते थेः- मैं स्वयं को बड़ा सौभाग्यशाली समझता हूँ कि मुझे बहुएँ बेटियों जैसी प्यारी मिली हैं और दामाद बेटों से भी अधिक प्रिय।लेकिन पिछले लगभग चार वर्षों से वह अपने को बहुत बड़ा आत्मप्रवंचक-सा अनुभव कर रहे थे।
         
छोटी बहू दून्या, जो शादी के दो-तीन वर्ष बाद तक हँसी-ठिठोली में,पारिवारिक समारोहों के नाच-कूद में, नाते-रिश्तेदारों की सेवा-टहल में सब का मन जीत लेती थी,अब पूर्णरूपेण बदल चुकी थी।शायद कुलश्रेष्ठ जी को, स्वयं की गर्वोक्ति की ही नज़र लग गयी थी।
        
कुशाग्र जो अपने व्यावसायिक कार्य-व्यवहार में तो दक्ष था ही, पैतृक गुणों व संस्कारों के कारण भी, खुले विचारों का, मिलनसार और विनोदी स्वभाव का था। उसके इस व्यवहार को दून्या जाने क्यों अब हर समय शंकालु दृष्टि से देखने और व्यवहार करने लगी थी जिसके प्रतिक्रियास्वरूप कुशाग्र भी अब उसके प्रति कुछ असहिष्णु और उद्वत हो चला था।अपने जाब के तनाव के बाद घर का यह तनाव झेलना उसे असह्य लगने लगा था। यदि पत्नी की ओर से क्षरित विश्वास और अनुराग की पूर्ति उसके पापा, भाई-भाभी, दीदी और जीजा जी आदि से न अनुभूत होती और उन सबकी मान-प्रतिष्ठा का ख़्याल यदि उसे न होता,तो कुशाग्र कब का कोई आत्मघाती कदम, जिसकी क्रूर चुनौती अक्सर उसकी पत्नी उसको देती रहती थी, कोसती भी रहती थी, उठा बैठता। यहाँ तक कि अब दून्या स्वयं के बचाव के लिए अपने एकमात्र मासूम पुत्र युवान की भी झूठी क़समें खाने लगी थी जिससे कुशाग्र और उद्धत हो जाता था।
         
इस अनपेक्षित परिवर्तन का कारण पूछने पर कुशाग्र ने अपने पापा को बताता कि यह पारिवारिक, घरेलू दैनिक गतिविधियों में अपनी मम्मी से फीडबैक और ट्रेनिंग लेती है। घंटों तक घर की रसोई से लेकर बाहर की सारी रिपोर्ट उसे देती है। मेरी बात पर विश्वास नहीं करती।
        
वैसे तो किसी लड़की को अपने माता-पिता, भाई- भाभी,बहनों से बात करने में कोई हर्ज नहीं, लेकिन परिवार में अनावश्यक ऐसे तत्त्वों का दख़ल कदापि उचित नहीं।दून्या के पिता की स्थिति, उसकी माता के समक्ष 'शुद्ध देसी गाय' जैसी थी।पत्नी ने जो दे दिया सो खा, पहन लिया, नहीं तो राम-भरोसे।
          
उसकी माँ के बारे में जानकारी हुई कि वह अपने मायके में भाभियों, भाइयों को असहज रखने की बात- व्यवहार करती रही है जिससे उसके पिता, भाई, सभी दुखी रहते रहे थे। वैसा ही शिक्षण, प्रशिक्षण,वैसे ही संस्कार वह अपनी बेटी को भी दे रही है जिसे बेटी घर में अप्लाई करके अपने पति कुशाग्र का जीना दूभर किये जा रही थी। यहाँ तक कि अपने मासूम पुत्र के मन में भी वह पिता के प्रति विद्रोह के बीज बोने के प्रयास करती थी।
जब पति से अनबन हो जाती, तो बेटे को उसके पिता, जिसके जीने का एकमात्र सहारा वह बालक ही था, से अलग सुलाकर पति को मानसिक प्रताड़ना का शिकार बनाने का पाप करती थी।
        
दून्या हर समय ऐसी ही उद्धत रहती हो, ऐसी भी बात नहीं थी। सुबह जल्दी उठकर, युवान को स्कूल भेजने की तैयारियों से लेकर घर की साफ-सफाई, पूजा-पग्घार, व्रत-उपवास,खान-पान, सेवा-सत्कार में आज भी उसका कोई सानी नहीं था। युवान के अपटूडेट चैतन्य और कार्य-व्यवहार शैली में उसका बड़ा हाथ था। कुलश्रेष्ठ जी सहित पूरा परिवार और बेटी दामाद भी उसके बड़े प्रशंसक थे किन्तु जैसे किसी दैवीय आत्मा का आरोपण किसी बालिका या महिला पर हो जाता है और वह विकराल रूप धारण कर लेती है,ऐसी कोई शैतान आत्मा उस पर अक्सर सवार हो जाती थी जो उसकी सारी अच्छाइयों, उसके सारे किये-धरे पर पानी फेर देती थी।
        
कुशाग्र भी सर्वथा निर्दोष हो,ऐसी भी बात नहीं। वह घर आकर भी जाने कहाऋ-कहाँ के टेंशन पाले रहता था, वैसी ही आफिशियल लैंग्वेज में पत्नी,बच्चे  से बात करता। हर समय मोबाइल पर लगा रहता, कभी ज़रूरी तो कभी ग़ैर जरूरी।आवश्यक घरेलू सामान लाने में लापरवाही कर जाता किन्तु इनमें से अधिकतर दोष दून्या के दुर्व्यवहार के रिएक्शन के रूप में ही थे, ऐसा परिजन अनुभव किया करते थे। यदि वह प्रारम्भ से ही ऐसा रहा होता तो इतनी अल्प अवधि में एन.सी.आर. में अपना घर-मकान, सुन्दर-सी स्विफ्ट गाडी, स्पृहणीय सामाजिक स्टेटस भला कैसे बना पाता?
         
'यह मेंहदी क्यों लगा रही हो?' ऐसा परिहास में पूछने पर 'जब तक तुम हो, तब तक लगा रही हूँ' कोई पत्नी रूखे स्वरों में ऐसा भी उत्तर देगी? लेकिन दून्या बहुधा ऐसे उत्तर देती थी। पति के, विवशतावश कभी हाथ चला देने पर वह भी बराबर की त्वरित प्रतिक्रिया करती जिससे स्थिति और विस्फोटक बन जाती।फिर यह तनाव हफ्तों तक चलता।ऐसे समय में कुलश्रेष्ठ जी को अपनी मोना की याद बहुत आती।यदि वह होती तो निश्चित रूप से बेटा-बहू को साधकर ऐसा वातावरण बनने से रोक लेतीं।श्वसुर होने के नाते बाबू जी तो इतना प्रत्यक्ष हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे न?
       
'यदि मैं तुमको इतना ही दुःखी करता हूँ तो दो-चार महीने, साल दो साल के लिए अपने मायके क्यों नहीं चली जातीं? वहाँ जाकर मम्मी-पापा की सेवा करो।' ऐसा कई बार कुशाग्र के कहने पर भी दून्या मायके जाने का भी नाम नहीं लेती क्योंकि वह जानती थी कि यहाँ जैसी सुख- सुविधाएँ वहाँ नहीं मिलेंगी और दूसरे, मायके में उसे कोई इतना पसन्द भी नहीं करता, सिवा उस माँ के।
        
बड़ी बहू तान्या की भाँति दून्या भी पहले प्रत्येक सुबह उठने पर श्वसुर कुलश्रेष्ठ जी के श्रद्धापूर्वक पैर छूकर आशीर्वाद लेती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं होता। यद्यपि बेटा नियमितरूप से सुबह,भले ही देर से, उठकर पैर छूता था।
       
यद्यपि इस टेंशन का प्रभाव उसके स्वास्थ्य और छवि पर भी पड़ा था, जिसको देखकर परिवार वाले दुखी होते थे लेकिन कर भी क्या सकते थे? सब कुछ देख-सुनकर भी कुलश्रेष्ठ जी दून्या को 'बेटा-बेटा' कहकर ही सम्बोधित करते थे। यह सोचकर कि उनके लाड़-प्यार को देखकर कदाचित् वह पिघल जाए अथवा शायद कभी ईश्वर उसकी बुद्धि सुधार दे।
          
वैसे तो दून्या की यह क्लेशकारिणि स्थिति देखकर सेवानिवृत कुलश्रेष्ठ जी का चण्डीगढ़ आने का मन नहीं करता था किन्तु वह बेटे को ऐसी स्थिति से जूझते रहने के लिए अकेले नहीं छोड़ना चाहते थे। उनके आने से बेटा और पौत्र प्रसन्न हो जाते थे।उनकी जीवनी-शक्ति बढ़ जाती थी।
            
कभी-कभी दून्या का 'पापा जी, चाय लाऊँ? पापा जी जूस बनाऊँ आपके लिए?' जैसा सहज, सरल-तरल व्यवहार देखकर कुलश्रेष्ठ जी का चित्त गदगद हो जाता, वह बहू में वैसी ही बेटी-जैसी वापसी चाहते थे। उन्हें उस पर बहुत प्यार आने लगता लेकिन जब कभी एकान्त में बेटा कुशाग्र, जो आजकल नौकरी छोड़कर अपना बिजनेस स्थापित करने के वास्तविक संघर्ष में था,ये वचध बोलकर कि 'लोग अक्सर कहते मिल जाते हैं कि उनकी उन्नति में उनकी पत्नी का बहुत बड़ा हाथ है, जीवन के संघर्षों में वह उनके कदम से कदम मिलाकर चली है, इसलिए, किन्तु मुझे लगता है, मैं यह बात जीवन में कभी किसी से नहीं कह पाऊँगा बल्कि मैं तो कहूँगा कि मुझे जो अपेक्षित सफलताएँ नहीं मिल पा रही हैं, वह सब दून्या की बद्दुआओं का ही परिणाम है।' गहरी साँस भरने लगता तो कुलश्रेष्ठ जी का कलेजा फटता था। प्राणप्रिया मोना का अभाव और उनकी स्वयं की विवशता उन्हें खाने को दौड़ती थी। सामने खूँटी पर टँगे मोना के चित्र की ओर देखते-देखते वह अपनी अन्तर्वेदना उसकी ओर उछालकर निश्चिन्त होना चाहते, पर हो नहीं पा रहे थे।
     
यही वेदना कुलश्रेष्ठ जी को पार्क में अधिक से अधिक समय व्यतीत करने को विवश करती थी।वह अपने चित्त की व्यथा कहते भी तो किससे? सुनने वाला तो, बस,एक ही था और वह भी ऊपर सातवें आसमान पर बैठा था।
       
सहसा कुलश्रेष्ठ जी को याद आया कि उन्होंने कुछ प्रार्थनाएँ अपनी प्रिया मोना,जो अब विधाता के दरबार का एक अंग बन गयी थी, के माध्यम से परम सत्ता तक भेजी थीं जो स्वीकार भी हुईं। इस नये माध्यम के बल पर उन्हें विश्वास था कि स्थिति सुधरेगी और शीघ्र सुधरेगी।
        
आज सोमवार था। कुलश्रेष्ठ जी पिछले कुछ महीनों से इस दिन का साप्ताहिक उपवास रखने लगे थे।आज वह जब पूजन-पीठ पर रखे मोना के चित्र के समक्ष बैठे तो ठीक वैसे ही हठ ठानकर जैसे महामूढ़ कालिदास उच्चैठ शक्तिपीठ वाली महाकाली के समक्ष बैठे थे। उन्होंने रो-गाकर अपनी सभी मनोवेदनाएँ मोना की झोली में डाल दीं।
        
आज गायत्री जयन्ती थी। कालोनी में इक्यावन कुण्डीय यज्ञ का बड़ा आयोजन था। कुलश्रेष्ठ जी के गायत्री परिवार से सक्रियरूप से जुड़े होने के कारण आयोजक गुप्ता जी,उन्हें भी सपरिवार सम्मानपूर्वक आमन्त्रित कर गये थे।
         
देव-आह्वान के साथ विधिवत् प्रारम्भ हुआ यज्ञ समापन की ओर था। एक बेदी पर बेटा-बहू यजमान बनकर बैठे थे।युवान अपने बाबा सा के पास बैठा। संयुक्त परिवारों के पारस्परिक सामंजस्य और बेदियों पर बैठे युग्मों के लिए दाम्पत्य जीवन के महत्व और मर्यादा पर मुख्य पुरोहित जी का संक्षिप्त उद्बोधन हो चुका था। अब मुख्य मंच से अपने जीवन की एक-एक मुख्य बुराई छोड़ने का आह्वान किया जा रहा था। कुलश्रेष्ठ जी की दृष्टि बेटा-बहू दोनों के चेहरे पर  बार-बार पड़ रही थी।बेटा कुशाग्र की पलकें झुकी हुई थीं।वह अपने पापा से नज़र नहीं मिला पा रहा था। कुलश्रेष्ठ जी की दृष्टि जब बहू दून्या की आँखों पर पड़ती तो उनमें सागर लहराते दीखते। वे अपनी डबडबायी दृष्टि हटा लेते। यह क्रम कई बार चला। अन्ततोगत्वा उन्होंने प्रीतिभरी आँखों से मानों, बहू के, कदाचित् प्रायश्चित भरे लोचनों की ओर आश्वस्ति के संकेत उछाल दिये।
          
अगले दिन पूर्वाह्न दस बजे जब कुलश्रेष्ठ जी जलपान ग्रहण करके अख़बार देखने बैठे तो बहू दून्या अचानक समक्ष आकर उनके पैरों पर गिर पड़ी और 'पापा जी, मुझे क्षमा कर दीजिए। अब कभी ऐसी ग़लतियाँ नहीं ह़ोगी' कहकर फफककर रोने लगी। कुलश्रेष्ठ जी का भी गला भर आया। वह पहले तो बिना कुछ बोले नतमस्तक बहू का सिर सहलाते रहे फिर लँगड़े पैरों पर उठ खड़े हुए और बहू को कन्धों से ऊपर उठाकर बार-बार उसका ललाट चूमने लगे। उन्हें लगा कि बहू के रूप में उनकी अपेक्षित बेटी आज अपने घर लौट आयी थी।

Aur, Beti Laut Ayi

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