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बुधवार, 23 मई 2012

व्यंग्य: खौराहा कुत्तों से सावधान! — बुद्धिनाथ मिश्र



डॉ.बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाएँ देश की सभी प्रमुख हिन्दी और मैथिली की पत्र-पत्रिकाओं में छपी हैं। दूरदर्शन के प्रमुख केन्द्रों, विविध भारती तथा आकाशवाणी की विदेश प्रसारण सेवा से कई-कई बार काव्यपाठ प्रसारित हो चुके हैं। आपने कई देशों की साहित्यिक यात्राएँ की हैं। देश-विदेश में आयोजित कई राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलनों में गत चार दशकों से काव्यपाठ किया है। साथ ही आपके मैथिली में लिखे संस्कार गीतों के दो ई पी रिकार्ड (वाराणसी), संगीतबद्ध श्रृंगार गीतों का ऑडियो कैसेट ‘अनन्या’ (कलकत्ता) तथा सस्वर काव्यपाठ के दो कैसेट ‘काव्यमाला’ और ‘जाल फेंक रे मछेरे!’ (वीनस कंपनी, मुंबई) काफी लोकप्रिय हुए हैं। जबकि आपके प्रकाशित संकलनों में ‘जाल फेंक रे मछेरे!’ (नवगीत संग्रह), ‘नोहर के नाहर’ (एक समाजसेवी की जीवनी), ‘जाड़े में पहाड' (दुष्यंत कुमार अलंकरण, भोपाल के उपलक्ष्य में प्रकाशित नवगीत संग्रह) तथा शिखरिणी (नवगीत संग्रह) अब तक की कृतियाँ हैं। वहीं ‘ऋतुराज एक पल का’ (नवगीत संग्रह) भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से शीघ्र ही प्रकाशित होने जा रहा है। इसके अतिरिक्त शंभुनाथ सिंह द्वारा संपादित ‘नवगीत दशक-३’, कुमुदिनी खेतान द्वारा संपादित ‘एक हजार साल की हिन्दी कविता : स्वान्तः सुखाय’, साहित्य अकादमी द्वारा कन्हैयालाल नंदनजी के संपादन में प्रकाशित गीत संकलन ‘श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन’, मारिशस से प्रकाशित अन्तर्राष्ट्रीय काव्य संकलन ‘विश्व हिन्दी दर्पण’, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया द्वारा देवशंकर नवीन के संपादन में ‘अक्खर खंबा’ (स्वातंत्रयोत्तर मैथिली कविता संग्रह) तथा ‘कविताकोश’, ‘अनुभूति’, ‘सृजनगाथा’, ‘रेडियोसबरंग डॉट काम’, ‘गीत-पहल’ आदि ई-पत्रिकाओं में भी मिश्रजी की अनेकों हिन्दी, मैथिली एवं भोजपुरी रचनाएँ संकलित हैं। उनके कुछ गीतों का अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ है और उनके रचना-संसार पर कई छात्रा-छात्राओं ने शोधप्रबंध भी लिखे हैं। जन्म- 1 मई 1949 को समस्तीपुर बिहार के देवधा गाँव में। आपकी एक व्यंग रचना यहाँ प्रस्तुत है:-

गूगल सर्च इंजन से साभार

काली किरिया, मुझे नहीं मालूम था कि मेरी गली में इतने सारे कुत्ते,मतलब सहित्यकार रहते हैं। मैने खिड़की से झाँक कर देखा--कुल सोलह लोग थे। सबकी मुट्ठियाँ प्रगतिशील मुद्रा में भिंची हुई थीं।सब जोर-जोर से मेरा दरवाजा खटखटा रहे थे। इस अकाण्ड-ताण्डव से घबराकर पत्नी मेरे बगल में आ खड़ी हो गयी।बिलकुल यमराज और सत्यवान के बीच सावित्री की तरह। मैने कमरे में बन्द किसी हनीमूनी जोड़े की तरह फुसफुसाकर पूछा--क्या ये सभी अपने मुहल्ले के हैं?

और अवसर होता तो वे चिल्ला पड़ती, मगर मसला कुछ नाजुक था,इसलिए वह भी धीरे से ही बोली-- तब क्या? ये सभी अपने मुहल्ले के ही कवि हैं।अक्सर मुहल्ले की कविगोष्ठियों में जुटते हैं। आप तो कभी शहर में रहते नहीं।कैसे पहचानेंगे इन्हें!’

मैने अपने नकारात्मक सोच के घटाटोप को परे कर दिया और अपने मन में यह विचार आने दिया कि हो सकता है, कोई बड़ा आयोजन करनेवाले हों और मुझे मुख्य अतिथि के रूप में बुलाना चाहते हों। इसलिए अत्यन्त विनम्रतापूर्वक दरवाजा खोलकर दोनो हाथ गांधियन स्टाइल में जोड़ लिये और लखनवी मुस्कान बिखेरते हुए निवेदन किया-- कहिये, एक साथ इतने महत्वपूर्ण कवियों का एकसाथ मेरे घर आने की कैसी योजना बन गयी?

उनमें से जो सबसे आगे था,वह किसी अनियतकालीन पत्रिका का सम्पादक था , जिसका पिछले दस वर्षों में केवल एक अंक देखने का मुझे सौभाग्य मिला। उसमें भी ८० प्रतिशत उसीकी या उसीपर रचनाएँ थीं।खैर, उसने गला खखारकर कहा--आप बनारसवालों ने देश के साहित्यकारों को समझ क्या रखा है? हम कुत्ते हैं? हम कूड़ा लिखते हैं?

--मैने समझा नहीं।

---आप अखबार नहीं पढ़ते?

--जी नहीं। जबसे हिन्दी के स्वनामधन्य अखबारों ने अपनी शक्ल-सूरत जिला बुलेटिन की बना ली है,तबसे मैने अखबार लेना बन्द कर दिया है।

वे सभी हैरानी से एक दूसरे का मुँह देखने लगे।बोले-- तो क्या आपको बिलकुल मालूम नहीं कि देश में क्या हो रहा है? हमें सीवान पर भूकनेवाला कुत्ता कहा जा रहा है! आपलोग अपने को समझते क्या हैं? हिन्दी साहित्य के भारतभाग्यविधाता आपलोग कबतक बने रहेंगे?

मैं समझ गया कि आग किसी ने लेसी और घर मेरा जल रहा है। फिर भी लोककथा की चिड़िया की तरह अपनी चोंच में भर हीक पानी भरकर मैने उस दावानल को बुझाने की कोशिश की---देखिये,काशी के शब्दकोश में कुछ शब्दों का अर्थ बदल जाता है,जैसे राजा का अर्थ वहाँ प्रेमिका होता है। तेग अली की पंक्ति ‘भेंवल हौ राजा दूध में खाजा तोरे बदे’ मे राजा सम्बोधन अपनी प्रेमिका के लिए है,काशीनरेश के लिए नहीं। रामायणी लोग भक्ति के आवेश में आकर चौपाइयों के बीच चिल्ला उठते हैं-‘वाह राजा तुलसी, का कहि दिहला!" दूसरी बात, सारे देश के साहित्यकारों को कुत्ता नहीं कहा गया है,केवल सीवान के साहित्यकारों को...आप जानते हैं कि सीवान मात्र एक जनपद है और सालों पहले बनारस के ही त्रिलोचन शास्त्री ‘उस जनपद का कवि हूँ’ लिख गये हैं। त्रिलोचन जी अग्रजानी थे। वे जानते थे कि बनारस में मेड़ों पर उगे रेंड़ी के पेड़ बगीचे के लँगड़ा आम के पेड़ों को भी बड़ी मुश्किल से पेड़ मानेंगे,क्योंकि इससे उनकी औकात चरमरायेगी।इसलिए उन्होने पहले ही अपने को ‘उस जनपद का कवि’ मान लिया था,जिसे आप हिन्दी के नये समीक्षा शास्त्र की शब्दावली में ‘सीवान का कुक्कुर’ ही तो कहेंगे!

---लेकिन किसी साहित्यकार को कुत्ता कहना घोर अपमानजनक है और यह सिद्ध करता है कि बनारसी लोग पशु और मानव में कोई अन्तर नहीं मानते हैं।

अब मुझे अपना ज्ञान बघारने का सुनहरा मौका मिल गया। मैंने निवेदन किया-- काशी के द्वारपाल कालभैरव हैं, जिनका वाहन कुत्ता है।जबतक आपपर कुत्ते प्रसन्न नहीं होंगे, आपको साहित्य की मुक्तिनगरी में घुसने नहीं देंगे। दूसरी बात, यह टिप्पणी आप पर लागू इसलिए नहीं है कि आप उनके पैमाने पर साहित्यकार उतरते ही नहीं हैं। जो उनकी दृष्टि में साहित्यकार है,वे आपकी नजर में कुत्ते भी हो सकते हैं!

इस प्रत्यक्ष स्पष्टीकरण और परोक्ष नवनीत-लेपन से उन विकट पड़ोसियों का पारा थोड़ा ठंढा हुआ और वे चाय के बहाने वार्ता के टेबुल तक आने को तैयार हुए।अब मैने तैमूर लंग की मुद्रा अपना ली। मैने हमला किया --- आपलोग देहरादून में रहकर कुत्तों से घृणा करते हैं! यहाँ तो जब कुत्ता रखना फख्र की बात है,तो कुत्ता होना कितने फख्र की बात है। जो आइएएस और आइपीएस अधिकारी अपने सेवाकाल के अपराह्न में सिर्फ़ मिलने के लिए कमरे के बाहर घंटों बैठाते थे,वे रिटायर होने के बाद सबेरे- सबेरे बड़े गर्व से अपना कुत्ता चराते मिलेंगे; कुछ इस अन्दाज में जैसे नन्द बाबा गाय चराने निकले हों। ऐसे महापुरुषों का कुत्ता होना जन्म-जन्मान्तर के पुण्य का फल है। आपको मालूम है, एक-एक कुत्ते का दाम कई-कई लाख होता है,जबकि एक आदमी का मूल्य कुछ हजार और एक साहित्यकार की कीमत कुछ सैकड़े हैं। पुलिस में तो एक-एक कुत्ते की सेवा में दो-दो सिपाही लगे रहते हैं।अब बताओ कि महापुरुषों के कुत्तों की तुलना में आदमी और उसमें भी साहित्यकार का सोशल स्टेटस कितना गिर गया है।एक चाय, दो समोसे पर पूरी रात बरबाद कर सकते हो,जबकि तुम्हारे लेवेल के गायक कलाकार एक रात के दस-दस लाख लेते हैं।लघु पत्रिकाओं के मुफ़्तखोर सम्पादक तुम्हें कुत्तों से भी गये-गुजरे समझते हैं। ऐसी कितनी पत्रिकाओं से तुम्हारी रचनाओं पर पारिश्रमिक मिलता है?

विस्मय से फैली उनकी आँखें बता रही थीं कि प्रकाशित रचनाओं पर पारिश्रमिक भी मिलता है,यह सुखद एहसास उन्हें प्रत्येक अंक में पाँच-पाँच लाख के विज्ञापन बटोरनेवाली लघु पत्रिकाओं के प्रकाशक-सम्पादकों ने भी कभी होने नहीं दिया। पुस्तकों के प्रकाशकों ने भी रॉयल्टी देने की जगह उनसे ही पैसे ऐंठ लिए।सारे बड़े-बड़े पुरस्कार कालभैरवों के पुजारियों से झाड़-फूंक कराने के बाद ही मिलते हैं। इस प्रकार कम से कम हिन्दी के साहित्यकारों के लिए दो स्थिति बनती है-- या तो कालभैरव का वाहन बनकर मन्दिर के प्रसाद से अपनी सेहत बनाते रहिए या आम आदमी से भी दो सीढ़ी नीचे गिरकर, गरीबी रेखा की बदबूदार नाली में बैठकर निराला के गुण गाते रहिये।

हिन्दी साहित्य के इस विडम्बनामय भविष्य का अनुमान कम से कम राष्ट्रकवि ‘दिनकर’ को जरूर था।जब उन्होने ‘हुंकार’ भरी कि ‘श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र भूखे बच्चे अकुलाते हैं’ तब ये श्वान मानव-रूप ही थे,वरना दूध के साथ-साथ वस्त्र की बात क्यों उठती? दिनकर जी ‘वस्त्र’ के स्थान पर ‘भात’ भी कह सकते थे।दूध-भात उनके गाँव का मुहावरा भी था। बड़े लोगों के श्वान जो दूध पीते हैं,उसीको आम बोलचाल की भाषा में पुरस्कार कहते हैं। केन्द्र की साहित्य अकादमी से लेकर राज्य के तमाम भाषा संस्थानों के पुरस्कार इसी दूध की भाँति हैं,जिन्हें कालभैरव के पालतू कुत्ते चपर-चपर कर पीते हैं और पीकर सामने से आनेवाले मरियल कुत्तों के झुण्ड पर गुर्राते हैं। रही बात वस्त्र की, तो यह वस्त्र भी सामान्य नहीं है।यह वह वस्त्र है जिसे पहनकर आप बड़े से बड़े पद के दावेदार बन जाते हैं। या जैसे रेशमी वस्त्र कभी अशुद्ध नहीं होता,उसी प्रकार यह रामनामी चादर ओढ़ लेने के बाद कोई भी कार्य अशुद्ध नहीं होता।

हमारा देश जब ऋषि-मुनियों के वर्चस्व का देश था,जब मानव को सर्वोच्च महत्व देता था,तब भी कुत्ते की वफ़ादारी को कम करके नहीं आँका गया था। महर्षि पाणिनि ने अपने ‘अष्टाध्यायी’ में कुत्ता,युवक और इन्द्र को एक ही सूत्र में नाथ दिया था--श्वयुवमघोनामतद्धिते। उसमें भी तीनों में कुत्ते को सबसे पहला स्थान! पाणिनि से भी एक कदम आगे बढ़ गये भगवान श्रीकृष्ण, जब उन्होने गीता में कुत्ता, चांडाल, ब्राह्मण,गाय और हाथी को एक ही तराजू में तौल दिया:

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥

जो वस्तुतः पण्डित हैं,वे विद्या-विनय युक्त ब्राह्मण, गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में कोई फ़र्क नहीं करते। समदर्शिता में मार्क्स के सिद्धान्त से चार बाँस ऊँचे इस श्लोक में कुत्ते को विद्यावान ब्राह्मण और गाय जैसे परम पूज्य की श्रेणी में रख दिया गया है। जैसे मनुष्य अपने हाथ, पैर, मस्तक, नितम्ब आदि से अलग-अलग काम कराता हुआ भी सभी अंगों के प्रति आत्मभाव रखता है, जिसके कारण किसी अंग को कष्ट होने पर वह दुखी होता है और दुख के निदान के लिए अपने विवेक से विभिन्न अंगों को कार्य सौंपता है, उसी प्रकार मानव से लेकर पशु-पक्षी और पेड़-पौधों को आत्मवत्‌ देखना एक सामाजिक कला है,जिसे हम विस्मृति के ताल में सिरा आये हैं।एक माने में,यह श्लोक दलित-विमर्श के खिलाफ़ है,क्योंकि जब सारा भेद मिट जाएगा, तब अपने बन्धु-बान्धवों को आरक्षण की कुर्सी पर कैसे बैठायेंगे!

कहते हैं कि महाभारत युद्ध के बाद पाण्डवों के स्वार्गारोहण के समय एक-एक कर पाण्डव गिरते गये और गिरिराज हिमालय की हिमशिलाओं के नीचे दबते गये।धर्मराज युधिष्ठिर के साथ अन्त तक मात्र एक काला कुत्ता रहा।व्यास ने उस कुत्ते को देवराज इन्द्र माना है।पाणिनि ने तो इन्द्र को कुत्ते की श्रेणी में रखा था,व्यास ने तो उन्हे कुत्ता ही बना दिया।अपने देश में अनुकूल परिस्थिति पाकर इतिहास फिर अपने को दुहरा रहा है।आज कौन कुत्ते के वेश में इन्द्र है और कौन इन्द्र का मुकुट पहने हुए कुत्ता है,यह तय करना मुश्किल है।राजधानियों में जब बड़े-बड़े इन्द्रों को कुत्ते की तरह दुम हिलाते देखता हूँ, तब लगता है कि मुकुट फेंककर सामान्य कुत्तों की तरह गुर्राऊँ और भौँकूँ।अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का यही अर्थ अब रह गया है,राजनीति में भी और साहित्य में भी।

मेरी गली के कुत्ते मतलब साहित्यकार मुझे बख्श कर कुछ देर में यह शिकायत करते हुए चले गये कि आप पूरे देश और विदेशों के कवि सम्मेलनों में अकेले घूमते हैं, हमें भी कभी-कभी मौका दीजिये।मैने उन्हें डपोरशंखी आश्वासन दे भी दिया,जिसका निहितार्थ वे भी जानते हैं, मैं भी।मगर बातचीत के दौरान एक बात जो उन्होने कही,उसका मतलब निकालना मेरे वश की बात नहीं है। उनमें से किसी ने कहा कि आलोचक बैलगाड़ी के पीछे चलनेवाला कुत्ता होता है। मैं सोचता हूँ कि ऐसी बैलगाड़ी तो खानाबदोश गड़िया लुहारों के पास होती है,जिसके पीछे उनका पालतू कुत्ता चलता है। हिन्दी साहित्य में आलोचक साइकिल- सवार की तरह है,जो नाम और वैभव में बैलगाड़ियों से काफ़ी आगे निकल गया है। चूँकि बैलगाड़ियाँ उनकी गति से नहीं चल सकतीं,इसलिए साइकिल सवारों ने भाड़े के कुछ रिक्शावालों को अपने साथ कर लिया है,जो उनका जयकारा करते हुए पीछे-पीछे चल रहे हैं।आज सफल रचनाकार वही है, जो आलोचक की फरमाइश के अनुसार रचना करे।नयी नस्ल के इन रचनाकारों को श्वान की वफ़ादारी का गुण तो याद है, उसकी विलक्षण घ्राणशक्ति का गुण नहीं।

चाय के खाली कप समेटते हुए श्रीमती जी ने कहा--आज बाजार जाकर ‘कुत्ते से सावधान ’ प्लेट खरीद लाओ। गेट पर लगाना है।

-क्यों? घर में कुत्ता तो है नहीं।

उसने जानमारू मुस्की फेंककर कहा-- कुत्ता नहीं है तो न सही, घर में एक साहित्यकार तो है!

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी पोस्ट 24/5/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें
    चर्चा - 889:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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  2. बुद्धिमान मिश्र जी की रोचक रचना से रूबरू करने के लिए बहत बहत आभार

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  4. मजा आ गया अविनाश जी, समय समय पर ऐसे शानदार लेख प्रस्तुत करते रहा करें। बुद्धिनाथ जी ने बिल्कुट सटीक व्यंग्य लिखा है। बधाई आप दोनों को

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