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रविवार, 23 दिसंबर 2012

नवगीत का संक्षिप्त इतिहास और उसकी मौजूदा समस्याएँ — वीरेन्द्र आस्तिक

 वीरेन्द्र आस्तिक

कानपुर (उ.प्र.) जनपद के गाँव रूरवाहार (अकबरपुर तहसील) में 15 जुलाई 1947 को जन्मे मूर्धन्य कवि, आलोचक एवं सम्पादक श्रद्धेय श्री वीरेंद्र आस्तिक जी बाल्यकाल से ही अन्वेषी, कल्पनाशील, आत्मविश्वासी, स्वावलंबी, विचारशील, कलात्मक एवं रचनात्मक रहे हैं। बाल्यकाल में मेधावी एवं लगनशील होने पर भी न तो उनकी शिक्षा-दीक्षा ही ठीक से हो सकी और न ही विरासत में मिले शास्त्रीय संगीत और गायन में वह आगे बढ़ सके। जैसे-तैसे 1962 में हाईस्कूल की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की और एक-दो वर्ष संघर्ष करने के बाद 1964 में देशसेवा के लिए भारतीय वायु सेना में भर्ती हो गये। पढ़ना-लिखना चलता रहा और छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में वीरेंद्र बाबू और वीरेंद्र ठाकुर के नामों से छपना भी प्रारम्भ हो गया। आपकी पहिला कविता 1971 में 'साप्ताहिक नीतिमान' (जयपुर ) में छपी थी। उन दिनों आस्तिक जी दिल्ली में रहा करते थे। दिल्ली में नई कविता का दौर चल रहा था, सो उन्होंने यहाँ नई कविता और गीत साथ-साथ लिखे। 

1974 में भारतीय वायु सेना छोड़ने के बाद वह कानपुर आ गए और भारत संचार निगम लि. को अपनी सेवाएँ देने लगे। कानपुर में छंदबद्ध कविता की लहर थी। इस नये माहौल का उनके मनोमस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह गीत के साथ ग़ज़लें भी लिखने लगे। 1980 में आ. रामस्वरूप सिन्दूर जी ने एक स्मारिका प्रकाशित की, जिसमें — 'वीरेंद्र आस्तिक के पच्चीस गीत' प्रकाशित हुए। उनकी प्रथम कृति— 'परछाईं के पांव' (गीत-ग़ज़ल संग्रह) 1982 में प्रकाशित हुई। 1984 में उन्होंने कानपुर विश्वविद्यालय, कानपुर से एम.ए. (हिंदी) की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1987 में उनकी पुस्तक— 'आनंद! तेरी हार है' (गीत-नवगीत संग्रह) प्रकाशित हुई। उसके बाद 'तारीखों के हस्ताक्षर' (राष्ट्रीय त्रासदी के गीत, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से अनुदान प्राप्त, 1992), 'धार पर हम' (1998, बड़ौदा विश्वविद्यालय में एम.ए. पाठ्यक्रम में निर्धारण : 1999-2005), 'आकाश तो जीने नहीं देता' (नवगीत संग्रह 2002), 'धार पर हम- दो' (2010, नवगीत-विमर्श एवं नवगीत के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर) एवं 'दिन क्या बुरे थे!' (नवगीत संग्रह 2012) का प्रकाशन हुआ। इसी दौरान सितम्बर 2013 में भोपाल के जाने-माने गीतकवि एवं सम्पादक आ. राम अधीर जी ने 'संकल्प रथ' पत्रिका का महत्वपूर्ण विशेषांक— 'वीरेन्द्र आस्तिक पर एकाग्र' प्रकाशित किया। 

आस्तिक जी को साहित्य संगम (कानपुर, उत्तर प्रदेश) द्वारा 'रजत पदक' एवं 'गीतमणि- 1985' की उपाधि— 17 मई 1986, श्री अध्यात्म विद्यापीठ (नैमिषारण्य, सीतापुर) के 75 वें अधिवेशन पर काव्य पाठ हेतु 'प्रशस्ति पत्र'— फरवरी 1987, अखिल भारतीय साहित्य कला मंच (मुरादाबाद) द्वारा 'अलंकार सम्मान'— 2012, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान (लखनऊ) द्वारा 'सर्जना पुरस्कार'— 2012 आदि से अलंकृत किया जा चुका है। 

संपादन के साथ लेखन को धार देने वाले आस्तिक जी के नवगीत किसी एक काल खंड तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनमें समयानुसार प्रवाह देखने को मिलता है। यह प्रवाह उनकी रचनाओं की रवानगी से ऐसे घुल-मिल जाता है कि जैसे स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहास के व्यापक स्वरुप से परिचय कराता एक अखण्ड तत्व ही नाना रूप में विद्यमान हो। इस दृष्टि से उनके नवगीत, जिनमें नए-नए बिम्बों की झलक है और अपने ढंग की सार्थक व्यंजना भी, भारतीय जन-मन को बड़ी साफगोई से व्यंजित करते हैं। राग-तत्व के साथ विचार तत्व के आग्रही आस्तिक जी की रचनाओं में भाषा-लालित्य और सौंदर्य देखते बनता है— शायद तभी कन्नौजी, बैंसवाड़ी, अवधी, बुंदेली, उर्दू, खड़ी बोली और अंग्रेजी के चिर-परिचित सुनहरे शब्दों से लैस उनकी रचनाएँ भावक को अतिरिक्त रस से भर देती हैं। कहने का आशय यह कि भाषाई सौष्ठव के साथ अनुभूति की प्रमाणिकता, सात्विक मानुषी परिकल्पना एवं अकिंचनता का भाव इस रस-सिद्ध कवि-आलोचक को पठनीय एवं महनीय बना देता है। 

यहाँ नवगीत पर आपका एक महत्वपूर्ण आलेख प्रस्तुत है। यह आलेख संक्षिप्त है अतः इसमें न तो विस्तार से नवगीत के इतिहास पर चर्चा देखने को मिलेगी और न ही नवगीत के वस्तु-विन्यास या प्रवत्तियों से सम्बंधित महत्वपूर्ण तथ्य। फिर भी नवगीत के विद्यार्थी इससे सार -संक्षेप प्राप्त तो कर ही सकेंगे:-

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार 
आज नवगीत एक समृद्ध विधा है। बल्कि मुझे तो ऐसा लगता है कि भविष्य में नवगीत का सुनहरा युग आने वाला है। इस परिप्रेक्ष्य में बात करने के लिए हमें नवगीत के इतिहास को भी जाँच-परख लेना चाहिए। यों तो नवगीत का इतिहास व्यापक है, किन्तु यहाँ पर हम कुछ मुख्य बिन्दुओं पर आप सभी का ध्यान चाहेंगे, तभी मौजूदा परिस्थितियों और समस्याओं पर विचार करना तर्कसंगत होगा। यहाँ पर हम नवगीत के इतिहास को प्रमुखतः चार खण्डों में विभाजित करके देख सकते हैं। यहाँ हम बहुत विस्तार में न जाकर इन चार खण्डों के संक्षिप्ततम रूप को अर्थात् एक संकेत के रूप में  प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।

नवगीत का पहला कालखण्ड है उसके जन्म का। उद्भव का। हम सभी नवगीतकार जानते हैं कि नवगीत एक तत्व के रूप में हमें महाप्राण निराला की रचनात्मकता से प्राप्त हुआ। आधुनिकता के प्रथम चरण में निराला उस टर्निंग प्वाइंट पर खड़े थे जहां से कविता समाज के यथार्थ और उसके सापेक्ष मूल्यों से प्रभावित होती है, और वह प्रभाव हमें बाद के रचनाकारों में दिखाई देने लगता है। केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, वीरेन्द्र मिश्र, डॉ. रवीन्द्र भ्रमर और राम दरश मिश्र आदि एक प्रेरणास्रोत के रूप में दिखाई देते हैं। 1948 में अज्ञेय के संपादन में 'प्रतीक' का 'शरद अंक' आया, जिसमें अघोषित रूप से नवगीत विद्यमान थे। तदोपरान्त एक श्रृंखला के रूप में 'कविताएं - 52-53 और 54' आदि का प्रकाशन हुआ। इन अंकों में भी नवगीत का तत्व था। उस समय जो नए गीत आ रहे थे, वे पारम्परिक गीतों से अलग हट कर आ रहे थे। 1958 में राजेन्द्र प्रसाद सिंह के संपादन में 'गीतांगिनी' आई। 'गीतांगिनी' में नवगीत का नामकरण ही नहीं, बल्कि उसका तात्विक विवेचन भी किया गया। उस दौर का यही सब नवगीत के उद्भवकाल का संक्षिप्त इतिहास है। उद्भव कैसा भी हो, वह हमें आल्हादित करता है। वहाँ आलोचना की गुंजाइश कम होती है, आलोचना की संभावनाएं उसके विकास में हुआ करती हैं।

नवगीत का दूसरा कालखण्ड आता है उसकी स्थापना का, जो सन् 1960 से माना जाना चाहिए। स्थापना काल में भी अनेक समवेत संकलन आए। गीत की इस नई अवधारणा की एक प्रकार से आंधी-सी चल पड़ी। बड़े-बड़े रचनाकार नई कविता को छोड़कर नवगीत के क्षेत्र में आ गए। नई कविता 1952-53 में स्थापित हो चुकी थी। सन् 1960 से नवगीत को लेकर बहसों और विमर्श का दौर शुरू हुआ। ओम प्रभाकर की 'कविता-64' जैसी पत्रिकाओं से नवगीत की जमीन तैयार होने लगी। भाषा के सारे बोझिल अंलकरणों को निरस्त करते हुए और लोक तत्वों से ऊर्जा ग्रहण करते हुए, ठाकुर प्रसाद सिंह की संथाली गीतों की ‘वंशी और मादल’ आई। 1969 में चंद्रदेव सिंह ‘पॉच जोड़ बाँसुरी’ लाए। 'गीतांगिनी' की तरह इस समवेत संकलन में भी पाँच पीढ़ियों के उन गीतों को चयनित किया गया, जिनमें कम या ज्यादा नवगीत के तत्व विद्यमान थे। सन् 1980 तक नवगीत पूरी तरह से स्थापित हो चुका था।

नवगीत का तीसरा चरण आता है, उसके विकासात्मक काल का। 9वें दशक के प्रारम्भ से ही एक ऐसा विकास देखने में आता है जिसमें अनेक प्रकार की भाषा-शैली के प्रयोग देखने को मिलते हैं। यों नवगीत अपने आरम्भिक काल से ही नए कथ्य के स्तर पर प्रयोगपरक ही रहा। यह काल भी अनेक समवेत संकलनों और नवगीत की पत्रिकाओं आदि से समद्ध हुआ। अब तक अनेकानेक नवगीतकार स्थापित हो चुके थे— उमाकांत मालवीय, शिवबहादुर सिंह भदौरिया, छविनाथ मिश्र, विश्वरंजन, वीरेन्द्र मिश्र, रवीन्द्र भ्रमर, शांति सुमन, मधु सूदन साहा, देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, सत्यनारायण, शम्भू नाथ सिंह, देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, रमेश रंजक, श्रीराम सिंह शलभ, कुमार रवीन्द्र, माहेश्वर तिवारी, गुलाब सिंह, दिनेश सिंह आदि। इन्हीं के साथ उस दौर के नयी पीढ़ी के नवगीतकार डॉ राजेन्द्र गौतम व विजय किशोर मानव आदि भी चर्चित हो रहे थे। इन सारे नवगीतकारों में से, आयु के स्तर पर 10-10 रचनाकारों का चयन करके डॉ शंभुनाथ सिंह ने 'नवगीत दशक— एक, दो और तीन' निकाले। सर्वविदित है कि नवगीत के विकास में इन नवगीत दशकों का ऐतिहासिक महत्व रहा है। नवगीत के विकास की यात्रा भी थमी नहीं। डॉ सिंह के संपादन में ही 'नवगीत अर्द्धशती' (1986) भी आई। डॉ राजेन्द्र गौतम कृत 'नवगीतः उद्भव और विकास' जैसा शोध ग्रन्थ भी आया। 1997 में डॉ सुरेश गौतम के संपादन में 'काव्य परिदृश्य : अर्द्धशती : पुनर्मूल्यांकन' भाग एक और भाग दो आए। दोनों ग्रन्थों में लगभग 300 गीत-नवगीत के रचनाकारों के व्यक्तित्व-कृतित्व पर सविस्तार विवेचन मिलता है। 1998 में गद्य कविता को चुनौती देता हुआ ‘धार पर हम’ (सं.- वीरेन्द्र आस्तिक) प्रकाशित हुआ। इस ग्रन्थ की लम्बी भूमिका में अनेक पूर्वाग्रहों और भ्रान्तिओं का निवारण हुआ। बीच-बीच में ‘नवगीत एकादश’ (सं.- भारतेन्दु मिश्र, 1994) जैसे समवेत संकलन आये। इसी दौरान 'नये-पुराने' (सं.- दिनेश सिंह) के छः गीत अंक (1997-2000) भी आए। सन् 2000 में साहित्य अकादमी से ‘श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन’ आया। नवगीत की विकास-यात्रा में हमें कथ्य-भाषा-शैली के स्तर पर नवगीत के अनेक रंग, अनेक प्रकार के भाषाई मुहावरे देखने को मिलते हैं।

21वीं सदी के प्रारम्भ से ही नवगीत का चैथा चरण माना जा सकता है जो अपनी सारी ऐतिहासिक विशेषताओं को उजागर करता है। आज नवगीत अपने पूरे इतिहास बोध को साथ लेकर प्रगति-पथ पर अग्रसर है। इस अवधि में मधुकर गौड़ के संपादन में नवगीत के गीत नवांतर के रूप में कई अंक आए। 2004 में 'नवगीत और उसका युग बोध' (सं.- राधेश्याम बंधु), 2006 में 'शब्दपदी: अनुभूति एवं अभिव्यक्ति' (सं.- निर्मल शुक्ल) एवं 2009 में 'नवगीत : नई दस्तकें' (सं.- निर्मल शुक्ल) प्रकाशित हुई। 2010 में नवगीत-इतिहास को समृद्ध करने हेतु एक समवेत संकलन आया ‘धार पर हम- दो' (सं.- वीरेन्द्र आस्तिकऔर अभी हाल में 'नवगीत के नये प्रतिमान' (सं.- राधेश्याम बंधु, 2012) जैसे ग्रन्थ भी निकले। 

मौजूदा दौर में भी अन्य महत्वपूर्ण समवेत संकलन प्रकाश में आते जा रहे हैं। इस तरह हिन्दी काव्य साहित्य के इतिहास में नवगीत का एक समद्ध इतिहास विद्यमान है। नवगीत के उपर्युक्त विकास को देखते हुए इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भविष्य में नवगीत का सुनहरा युग आने वाला है, जो नवगीत का चौथा काल खण्ड होगा।

आज नवगीत एक समृद्ध विधा के रूप में जरूर है, लेकिन उसके साथ यह बिडम्बना भी है कि वह साहित्य  की मुख्य धारा में नहीं है। एक नकारात्मक बोध का इतिहास नवगीत की विकास यात्रा के साथ-साथ बराबर चलता रहा है और वह इतिहास आज भी मौजूद है। नवगीत हमेशा अपनी प्रगति के बावजूद षडयंत्रों और खेमीब़ाजी का शिकार रहा। इन षडयंत्रों और खेमेबाजी में किसी सीमा तक, नवगीत के अगुआ भी शामिल रहे हैं। उन लोगों  के अपने-अपने पूर्वाग्रह रहे हैं और ये पूर्वाग्रह हमारी एकजुटता में बाधक रहे हैं। अब हमें ऐसे फतवेबाजी के माहौल से उबरना होगा। हमें पूर्वाग्रहों से मुक्त होना होगा। मेरे विचार से दो प्रकार के ये पूर्वाग्रह हैं जो देखने में आए हैं। ऐतिहासिक और रचनात्मक। ऐतिहासिक अर्थात हम फलां-फलां गुट के हैं। गुटपरस्ती हमें विरासत में मिली हुई है। यानी एक तरह से ये पूर्वाग्रह हम रचनाकारों के संस्कार बन चुके हैं। इसी तरह रचनात्मक स्तर पर पूर्वाग्रह हैं—अर्थात् फलाने का नवगीत, नवगीत नहीं है या अमुक नवगीत साधारण-सा है। अब हमें इस प्रकार की मानसिक ग्रन्थियों से उबरना होगा। हमें सभी रचनाकारों के रचनात्मक अवदान को आत्मसात करना चाहिए। तभी हम सब अपनी अंर्तआत्मा से एकजुट हो पाएंगे। यहाँ उदाहरण के लिए गद्य कविता के क्षेत्र की एकजुटता को देखा जा सकता है जो एक आदर्श के रूप में हमारे सामने हैं।

अक्सर अलग-अलग मोर्चों की लड़ाईयां निजी स्वार्थों में बदल जाया करती हैं। इस तथ्य को समझना होगा। विकल्प के रूप में अन्ततः हमें एक मंच पर आना ही होगा।

अन्तिम बात मैं हिन्दी आलोचना के सन्दर्भ में कहना चाहूँगा। अर्थात्मक दृष्टि से आज नवगीत गद्य कविता से किसी मायने में कम नहीं है। मैं हमेशा कहता रहा हूँ। यहाँ पर पुनः कह रहा हूॅू कि सभी विधाओं के केन्द्र में मनुष्य और उसकी मनुष्यता है अर्थात् सभी विधाओं में संरचनात्मक स्तर पर भिन्नता होते हुए भी कथ्यात्मक स्तर पर एकात्मकता है। समानता है। रचना प्रक्रिया की दृष्टि से रचना की प्रभावोत्पादकता में फर्क आ सकता है, बल्कि आता भी है, किन्तु ऐसा कभी देखने में नहीं आया कि नवगीत जटिल कथ्य को सहज रूप में कह न पाया हो। नवगीत ने भी आम और खास की लड़ाइयां लड़ी हैं।

पिछले 60 वर्षों में नवगीत ने अनेक रचनात्मक मूल्य स्थापित किए हैं, लेकिन उन पर विचार मुख्यधारा के आलोचकों द्वारा नहीं किया गया। तथ्य साफ है कि मुख्य धारा में हमारे नवगीत के आलोचक नहीं हैं। अर्थात् पिछले 60 वर्षों में हम ऐसा आलोचक, ऐसा इतिहसकार पैदा नहीं कर पाये, जो गद्य कविता के आलोचकों पर भारी पड़े। हम जिस प्रकार की आलोचना करते हैं, वह भी अंशतः खेमेबाजी से प्रभावित रहती रही है, उसमें विवेचना तो होती रही है लेकिन मूल्यांकन की दृष्टि अपेक्षाकृत कम ही रही है। इसका प्रमुख कारण जो मेरी समझ में आ रहा है वह यह कि हम सारी विधाओं के अध्येता नहीं होते हैं, कविता-कहानी आदि की आलोचना पद्धतियों से हम अनजान रहे हैं और शायद हम अनजान रहना चाहते भी हैं। यही सब कारण हो सकते हैं जिनकी वजहों से हम बड़े आलोचक पैदा करने में असमर्थ रहे। यही कारण है कि शैक्षिक और अकादमिक जगत में हमारी भागीदारी नगण्य हो जाती है।

यहाँ मैं आलोचना पर जोर क्यों दे रहा हूँ? विगत में डॉ नामवर सिंह जैसे गद्य कविता के आलोचक यह कहते आए हैं कि ‘गीत आलोचना की वस्तु नहीं है।’ यह कहकर वे एक तीर से दो निशाने साधते रहे हैं। एक— गीत इस लायक नहीं कि उसकी आलोचना हो और दो— शैक्षिक जगत में, गद्य कविता का एकाधिकार बरकरार रहे।

मेरा मानना हे कि यदि गीत पर विमर्श नहीं होगा तो वह मूल्यांकित भी नहीं होगा और यदि उसका मूल्यांकन नहीं होगा तो पाठ्यक्रमों आदि में प्रवेश का रास्ता भी नहीं बन पाएगा। यहाँ पर मैं बड़े आदर के साथ उन सभी आलोचकों-समीक्षकों को याद करता हूँ जिनकी महती भूमिका से नवगीत समृद्ध हुआ। लेकिन बात वहीं की वहीं है कि नवगीत आज साहित्य की मुख्य धारा में नहीं है जिसका वह हकदार है, क्योंकि उसकी वकालत के लिए हमारे पास बड़े आलोचक नहीं है। 

मित्रों! हमारी वरिष्ठ पीढ़ी ने, हमारे वरिष्ठ आलोचकों-रचनाकारों ने नवगीत को स्थापित किया, उसको विकसित किया, उसका इतिहास रचा और यह सब करते-करते वह अब अवसान की ओर जा रही है। समय के ऐसे मोड़ पर हमारी दृष्टि अब अपनी युवा पीढ़ी पर टिकी हुई है। मेरा अनुरोध है युवा पीढ़ी से कि वह नवगीत लेखन के साथ-साथ आलोचना के क्षेत्र में भी प्रवेश करें। हमारी युवा पीढ़ी बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेकर नवगीत के क्षेत्र में अवतरित हुई है। मेरा संकेत मनोज जैन मधुर, अवनीश सिंह चैहान, डॉ जयशंकर शुक्ल जैसे नवगीतकारों की ओर है। डॉ राजेन्द्र गौतम और नचिकेता जी आलोचक के रूप में जाने जाते हैं और डॉ सुरेश गौतम को कौन नहीं जानता! नचिकेता जी से अभी बड़े-बड़े निर्णयात्मक शोध कार्य होने की संभावनाएं हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चुनौतियों का सामना एकजुट होकर ही किया जा सकता है; छोटी-छोटी प्रतिक्रियात्मक बातों को भूलकर अब हमें गम्भीर हो जाना चाहिए। 

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2 टिप्‍पणियां:

  1. नवगीत के सन्दर्भ में सार्थक आलेख लिखा है,पर इसमे कई नाम छूट गए हैं।
    जैसे नव गीतों को नयी ऊंचाई देने वाले नवगीतकार स्व भगवान स्वरुप सरस जिन्होने नवगीतों
    मैं भाषिक और नये बिम्बों को चलन में लाया, नईम/राम सेंगर जैसे गीतकार जो गीतों के अस्तित्व
    के लिये सदेव लडते रहे।-----
    आपको साधुवाद की नवगीत का इतिहास कम शब्दों में इतना सार्थक तथ्य परक लिखा है
    पूर्वाग्रह का बहुत बहुत आभार----

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  2. आदरणीय खरे जी, सादर नमस्कार। टिप्पणी के लिए आभार। शायद आपने इस लेख का शीर्षक नहीं पढ़ा। संक्षिप्त इतिहास और मौजूदा समस्याएं। हमारे देश में लगभग 200 नवगीतकार होंगे। इससे ज्यादा भी हो सकते हैं। सबके नामों का जिक्र करना क्या एक संक्षिप्त आलेख में संभव है? और यदि संभव भी हो तो वह आलेख सूची में बदल जायेगा। जिन नामों का आपने जिक्र किया है वे नि:संदेह आदरणीय हैं, मेरे लिए तो आपका नाम भी आदरणीय है। मेरी दृष्टि में तो आपका नाम भी छूट गया है। लेकिन यहाँ मेरी, उनकी आपकी बात नहीं है। प्रत्येक लेखक की अपनी दृष्टि होती है। और कुछ भी सम्पूर्ण नहीं होता ..ऐसे में इसे पूर्वाग्रह कैसे कहा जायेगा?

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