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मंगलवार, 4 जून 2013

मैं और मेरी कलम का सफ़र — गुलाब सिंह

गुलाब सिंह

कुम्भ नगरी के रूप में विश्वविख्यात और उत्तर भारत की तीन नदियों (गंगा, यमुना एवं सरस्वती) के संगम स्थल के लिए जाना जाने वाला इलाहाबाद (प्राचीन नाम प्रयाग) ने जहाँ देश को स्वतंत्रता सेनानी, प्रधानमंत्री, वैज्ञानिक, अभिनेता, प्रशासक, खिलाड़ी, शिक्षाविद, समाज सुधारक आदि दिए, वहीं कई विशिष्ट साहित्यकार दिए हैं, जिनमें नवगीत के क्षेत्र में गुलाब सिंह जी का नाम भी ससम्मान शामिल है। 5 जनवरी 1940 को जनपद इलाहाबाद (उ.प्र.) के ग्राम बिगहनी में जन्मे कवि गुलाब सिंह के गीतों में भारतीय ग्राम्य संस्कृति, वहाँ का जीवन और उसके राग-रंगों का मनोहारी चित्रण दिखाई पड़ता है। इनकी रचनाओं में जहाँ आधुनिक गाँव-समाज की संगत एवं विसंगत छवियाँ देखने को मिलती हैं, वहीं इनके द्वारा गढे हुए प्रतीकों-विम्बों के चिन्तनपरक चित्रांकन एवं रागवेशित भावाभिव्यक्ति के माध्यम से मानवी संवाद भी स्थापित होता चलता है। देखने में सरल, विनम्र और सादगी पसन्द गुलाब सिंह राजकीय इण्टर कॉलेज के प्रधानाचार्य के पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। 1962 से देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रही हैं। ‘धूल भरे पाँव’, ‘बांस और बासुरी’, ‘जड़ों से जुड़े हुए’ इनके प्रमुख नवगीत संग्रह हैं; जबकि 'पानी के फेरे' इनका महत्वपूर्ण उपन्यास है। साथ ही डॉ  शम्भुनाथ सिंह द्वारा सम्पादित 'नवगीत दशक - दो ' और 'नवगीत अर्धशती' एवं 'नये-पुराने' गीत अंकों में भी इनके नवगीत संकलित किये जा चुके हैं। इन्हें 2004 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ से 'साहित्य भूषण' से अलंकृत किया जा चुका है। 

मैं और मेरी कलम का सफ़र
न्मोत्सव के स्थान पर जीवित बचे रहने की प्रार्थना करते माता-पिता कुछ दिनों बाद ही आश्वस्त हो पाये कि किसी ग्रह की अन्तर्दशा के विपरीत प्रभाव से मैं उबर गया था। मां के द्वारा सुनाई गई उस करुण गाथा के वे प्रारम्भिक दिन मुझ अबोध के लिए अनुभवगम्य नहीं थे।

यह गीता ज्ञान तो बाद में सामने आया कि जन्मने वाले की निश्चित मृत्यु और मरने वाले का निश्चित जन्म होता है। किन्तु जन्म और मृत्यु के बीच के कार्यश्रेय रुपी अन्तराल का दो ध्रुव सत्यों के बीच अपना महत्व होता है। शैशव, बाल्यकाल, किशोरावस्था के नैसर्गिक पड़ाव आए, गए। घर, परिवार और ननिहाल के बीच कुछ दिनों तक इकलौते नौनिहाल के रुप में किशोरावस्था की रंगीनियों के क्या कहने। लेकिन घोर अंधड़ों के बीच वसंत के वे फूल अधिक समय तक वृन्त पर नहीं टिक पाये। जैसा कि अधिसंख्य साहित्यकों की कुण्डली में दर्दिनों का बाहुल्य होता ही है तो मेरे साथ अन्यथा क्यों होता? बहरहाल यहां इतना ही । 

संस्कार और परिवेश के चलते शिक्षा के माध्यमिक स्तर से ही कुछ लिखने-पढ़ने लगा। कुछ वर्षों बाद नवगीत की चर्चा में शरीक हुआ। फिर ऐसा संयोग बना कि छान्दसिक कविता की इस नई धारा में ही रम गया। यद्यपि कुछ कहानियां, आलेख, व्यंग्य आदि लिखे, प्रकाशित भी हुए। नवगीत से गंभीर लगाव के बावजूद मेरी प्रथम प्रकाशित पुस्तक उपन्यास है। *पानी के घेरे* (1975) का विमोचन महान साहित्यकार श्री नरेश मेहता जी ने किया था और ख्यात कथाकार अमर गोस्वामी जी के संयोजकत्व में एक स्मरणीय और महत्वपूर्ण गोष्ठी का आयोजन हुआ था। अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति की पत्रिका 'धर्मयुग' में छपने से उत्साहित हुआ। लिखता रहा कुछ पढ़ने-लिखने की उत्कंठा अभी भी बनी रहती है। डा. शभुनाथ सिंह ने 'नवगीत दशक' तीन खण्डों में सम्पादित किया, दूसरे खण्ड में मुझे भी स्थान मिला। तमाम समवेत संकलनों की तरह यह महत्वपूर्ण संकलन भी विवादित रहा। कुछ लोग लिए गऐ, कुछ छूट गए। तीनों दशकों में तीस की सीमा थी, लोग थे सैकड़ों। इन संकलनों की व्यापक चर्चा हुई। कुछ ने इन्हें सप्तकों की नकल, कुछ ने ऐतिहासिक महत्व का कार्य कहा। यह देखने में जरुर आया कि कुछ ऐसे भी थे, जो दशकों में आने को उपलब्धि मानते थे, कुछ दिनों बाद वे भी शम्भुनाथ सिंह को कोसने लगे। इस तरह के अनुभवों से दुख तो होता, लेकिन यह सब सामाजिक प्रवाह का हिस्सा लगता था। ऐसा भी समय आया जब नवगीतकारों की संख्या उसके पाठकों से अधिक लगने लगी।

यह शुभ-अशुभ जैसा द्वन्द्वात्मक दृश्य था। नवगीत के विकास और उसकी समृद्धि के लिए अनेक समर्पित व्यक्तित्व मिले, तो कुछ व्यवसाय करने वाले भी दिखाई पड़े। लेखकीय, प्रकाशकीय, पाठकीय संकट के बीच नवगीतों के मेरे तीन संग्रह छपे, दो तीन छपने को है। लेखों की भी एक पाण्डुलिपि है। घोड़ा घास से प्यार क्यों करे? की तर्ज पर प्रकाशक लेखक के प्रति संवेदित क्यों हो? वह तो व्यावसायिक दुनिया का एक अंग है। वह स्वास्तिक चिन्ह के दोनों तरफ के सुख- शुभ लाभ से जुड़ा है। मेरे लिखे की चर्चा हुई कि नहीं, इसके पीछे मैं बहुत जिज्ञसु इसलिए नहीं हो पाया कि मेरी कृतियां पता नहीं किसे मिली, इस अनिश्चय के चलते किसी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में नहीं रहा।

जन्मदिन की रजत और स्वर्ण जयन्ती की तरह ही एक जयन्ती भी भूल-भुलैया में गुजर जायेगी। मेरे असली जन्मदिन का टिप्पण खो भी गया था। थोड़ा बहुत जो लिखा, उसे थोड़े ही लोग पढ़ पाये होंगे। जिन्होंने पढ़ा या सुना वे खुश हुए। यह थोड़ी-सी खुशी बांट सकने का सौभाग्य और उसकी स्मृति ही मेरी पूंजी है।

कविता से रस, छन्द, अलंकार, भाव, प्राण, पीयूष गायब हुआ तो जीवन से संप्रक्ति, संवेदना, सद्भाव और शाश्वत मूल्य निकल गए। कहीं कुछ शेष रह गया तो उसी को संजोकर गायब हुए या खो गये की तलाश और जीवन-जगत में मानव जीवन की मूल्यवत्ता और अद्वितीयता का स्मरण और उसकी पुर्नप्राप्ति के लिए प्रतिश्रुत और प्रयत्नशील है नवगीत। एक तरफ उलूकवाहिनी लक्ष्मीपुत्रों का जमघट और उनकी लम्बी परछाईयां का गहन अंधकार है, दूसरी तरफ अन्ना हजारे जैसों की नक्कार खाने में तूती की आवाज है, तीसरी तरफ दृष्टि और दिशाविहीन भीड़ है। सामने एक प्रश्नाकुल मंजर है- 'क्यों सब हतप्रभ हैं/ धरती चांद सविता/ कलम कागज से दूर/ सड़क पर सुनी कविता/ दस रुपये गिलास पानी पियो/ जियो देश को कुछ देकर।'


1. गांव कह रहे
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

गांव कह रहे, दिल्ली दादी
हमें बचा लो
तो अच्छा

हम हैं गेहूं धान
बाजरा ज्वार उरद
अलसी सरसों तिल हैं लेकिन
तुम्हें ताड़ का कद

देते आए बरसों
वादों के दे रहे निवाले
हम भूखे के भूखे हैं
हुआ जो हुआ, अब तो
असली ग्रास खिला दो 
तो अच्छा

उथले ताल बन गई मेड़ें
पोखर पटी, कुएं सब अंधे
तिकठी घोड़ा गाड़ी पर रख
दूर हो गए चारों कंधे

घड़ियालों के महारुदन से
सदियों तक सीलन में सोये
हुआ जो हुआ अब तो
पक्के घाट लगा दो 
तो अच्छा

गांव-गांव गंवई-गंवई
उत्थान किसान, कलित क्रंदन
काली सड़कों पर झक मारें
स्वर्गादपि गरीयसी नन्दन

बगिया खिली वसंत बिराजे
गूंजे भ्रम के गाजे बाजे
हुआ जो हुआ, शब्द नहीं
अब हाथ बढ़ा दो 
तो अच्छा

2. पैसे के पांव

पैसे के पांव
बड़े ठोस बड़े भारी
पैसे की दौड़
रेस कोर्स घुड़सवारी

थर-थर कांपे ईमान
मुंह ढ़ककर सच रोये
बचे रहने की जगहें
न्याय नैतिकता टोये

सारे सम्बंध जैसे
कच्चे जर्जर धागे
सब से दिलकश लगती
पैसे की यारी।

सूर्योदय सी दमके शक्ल
इसे जोड़कर
झूठ छल फरेब
इसके जूते की नोक पर

एक पांव देश
दूसरा विदेश में जमा
यहां वहां घर
पैसा ऐसा घरबारी

सारे कानून नियम
कदमों के नीचे
चीख या कराह
सब से आंखें मीचे

जिसको भी चाहे
उसे बेच दें, खरीद ले
पैसा हो गया
सार्वमौमिक व्यापारी।

3. परस्परता

तुम मुझे कहो महान
मैं तुम्हें कहूं महान
चश्मा दो अंगुल का
अन्तहीन आसमान

शब्दों को पिघलाकर
गढ़े गए जो गहने
उन्हें छोड़
घूम रही भाषा
विरुदावलि पहने

कैसा भी पानी हो
काठ नहीं डूबेगा
लहरों को पता नहीं
अतल का विधान

दौर है हवाओं के
पत्तों में पांव उगे
उड़-उड़कर जुड़ते हैं
गड्ढों के ठांव रुके

पतझर के रेले में
रचनाओं के पल्लव
उत्सुक हैं करने का
मौसम का परिज्ञान

मठों के कंगूरों पर 
गुटुर गूं करें विहंग
वरदानी मुद्रा में
बाहर निकले घडंग 

सम्मिलित स्वर में गूंजा
दरवाजे अहोराग
ओ महान सिरीमान
मुट्ठी में आसमान

4. मुक्तक 

किसी का हक़ छीनकर के
दूसरों को बाँटते हैं
देके आरक्षण मेधावी का 
अँगूठा काटते हैं।

Gulab Sing: A Poet's Journey

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