डॉ सरस्वती माथुर |
डॉ सरस्वती माथुर का जन्म 5 अगस्त, 1 9 53 को हुआ। शिक्षा: एम.एस .सी (प्राणिशास्त्र ) पीएच .डी, पी. जी. डिप्लोमा इन जर्नालिस्म ( गोल्ड मेडलिस्ट )। डॉ माथुर कहती हैं: मेरे लिये जीवन ह़ी कविता है, कविता ह़ी जीवन है. कविता की लाखों परिभाषाएं हैं क्युंकि उसके आयाम अनेकों हैं, नींद में साँस चल रही है वह भी लयात्मक कविता है , जहाँ गति है वहाँ कविता है ...कविता एक साधना है, भावना है। कविता ... सृष्टि, देश, समाज, परिवार, प्रकृति, अहसास- अनुभूति और अभिव्यक्ति का कलात्मक आकलन है, साक्षात् ईश्वर से बातचीत का माध्यम है ! शायद इसलिए मेरी अभिव्यक्ति की केंद्रीय विधा भी कविता ह़ी है। प्रकाशित पुस्तकें: एक यात्रा के बाद (काव्य संग्रह), मेरी अभिव्यक्तियाँ, मोनोग्राम : राजस्थान के स्वतंत्रता सेनानी: मोनोग्राम हरिदेव जोशी, विज्ञान: जैवप्रोधोयोगिकी। कविता, कहानी, पत्रकारिता, समीक्षा, फ़ीचर लेखन के साथ-साथ समाज साहित्य एवं संस्कृति पर देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन। शिक्षा व सामाजिक सरोकारों में योगदान, साहित्यिक गोष्ठियों व सामाजिक कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी, विभिन्न साहित्यिक एवं शिक्षा संस्थाओं से संबद्ध, ऑथर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया, पब्लिक रिलेशंस सोसाइटी ऑफ़ इंडिया तथा राजस्थान चैप्टर की सदस्य। संपर्क: ए-२ , सिविल लाइन, जयपुर। ई मेल: jlmathur@hotmail.com
1. यह घर-अंगना
दूधिया भोर में
चंपा के झरे फूल
जब मैं आँगन के
तरु से रोज उठाती हूँ
तो ना जाने क्यों
अम्मा उसमें से
तुम्हारी महक आती है
घर भर में मंडराती है
याद है मुझको
बड़े दादा सा. ने
आँगन में यह पेड़
चंपा का रोपा था
पर इसका तो
लुत्फ़ तुमने
जी भर के उठाया था
मूंज की खटिया लगा
वहां आसन अपना
जमाया था
महाराजिन के संग वहां
तुम दिन भर बतियाती थी
मैथी-चौलाई चुटवातीं
सब्जियां कटवाती थीं
अमिया करौंदे का
अचार भी हल्दी में लगा
वहीँ बनवातीं थीं
रमैया की अम्मा से
साँझ को रामायण की
चौपाइयां गंवाती
आरती करके
हम सब को उसी
चम्पई हवा में अक्सर
तुम मोहल्ले भर की
कुछ कच्ची
कुछ सच्ची कहानियां
चटकारे ले-लेकर सुनातीं थीं
साँझ आरती के लिए
चंपा के फूल तुडवातीं
गजरा बना
राधा जी को चढ़वातीं
फिर साँझ गीत गातीं थीं
अम्मा, अब न तुम रहीं
न वो रसीली कहानियां
पर देखों न अम्मा
चंपा के फूल
अब कुछ ज्यादा
महकते हैं और
अम्मा एक गौरैया तो
रोज नियम से आती है
मधुर स्वर में
संध्या को जब वो गाती है
तो लगता है
वो गौरैया
तुम हो अम्मा
तुम, जो कहा करतीं थीं कभी कि
जन्म मिले दुबारा तो
चाहूँ मैं कि बनूँ
मैं एक गौरैया ताकि
छूटे मुझसे कभी न
मेरा चम्पई फूलों से महकता
यह घर-अंगना !
2 . याद के समुंद्र में
उतारूंगी एक मौसम
याद के समुंद्र में
गोता लगाने को
उतारूंगी एक मौसम
मन की आँखों में
फिर एक गीत लिखूंगी
तब गाना तुम उन
गीतों को सुर में
शब्द तुम्हें
मुखरित कर लेंगे
फिर उन स्पन्दनों में
तलाश कर मुझे
एक रास्ता तुम पा लोगे
तब मैं नयी राह चलूंगी
एक नये गीत के साथ
नयी-नयी प्रीत के साथ
एक राह मिलते ही
मौसम बदल जायेंगे
तब हम मिलकर
साजों के संग
एक नया गीत गायेंगे ।
3. लय
मैं समुद्र की तरह
उठती हूं विस्तरित होती हूं
लहरों की तरह-फेन उडेल
उफनती-थमती हूं
ज्वारभाटों से नहीं घबराती
सपनों की, आशाओं की
चट्टानों से टकराती भी हूं
तो उसमें भी ढूंढ लेती हूं
लय, उस लय में कभी कभी
ध्वनि नहीं होती
शब्द नहीं होते
शीर्षक नहीं होता
लेकिन
अलग-अलग रंग लिये
मधुर गीत होते हैं जो
एकबद्ध होकर
सपनों का अर्थ
लिख जाते हैं
उडने को एक आकाश
सौंप जाते हैं।
Dr Saraswati Mathur ki Hindi Kavitayen
सुन्दर संवेदनशील कवितायेँ!
जवाब देंहटाएंआदरणीय यह प्रस्तुति 'निर्झर टाइम्स' पर 'रचनाशीलता की पहुंच कहाँ तक?' में लिंक किया गयी है।
जवाब देंहटाएंआपकी अमूल्य प्रतिक्रिया http://nirjar-times.blogspot.com पर सादर आमंत्रित है।
सादर