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रविवार, 26 जनवरी 2014

साक्षात्कार : सारे हिंदी वाले एक यूटोपिया में जी रहे हैं — अमरनाथ

प्रो॰ (डॉ.) अमरनाथ


चर्चित लेखक एवं शिक्षाविद डॉ अमरनाथ शर्मा का जन्म 1 अप्रैल 1954 को गोरखपुर जनपद (संप्रति महाराजगंज), उ. प्र. के रामपुर बुजुर्ग नामक गाँव में हुआ था। शिक्षा: एम.ए., पीएच. डी.(हिन्दी) गोरखपुर विश्वविद्यालय सेभाषा : हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी और बंगला। पारिवारिक परिचय: माता : स्व. फूला देवी शर्मा, पिता : स्व. पं. चंद्रिका शर्मा, पत्नी : श्रीमती सरोज शर्मा, संतान : हिमांशु , शीतांशु एवं शिप्रा शर्मा। प्रकाशित कृतियाँ : ‘हिन्दी जाति’, ‘हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली’, ‘नारी का मुक्ति संघर्ष’, ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और परवर्ती आलोचना’, ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल का काव्य चिन्तन’,‘समकालीन शोध के आयाम’(सं॰), ‘हिन्दी भाषा का समाजशास्त्र’(सं॰), ‘सदी के अंत में हिन्दी’(सं॰),‘बांसगांव की विभूतियाँ’(सं॰) आदि। ‘अपनी भाषा’ संस्था की पत्रिका ‘भाषा विमर्श’ का सन् 2000 से अद्यतन संपादन। सम्मान व पुरस्कार : साहित्य मंडल श्रीनाथद्वारा का ‘संपादक रत्न सम्मान’, भारतीय साहित्यकार संसद का ‘भारतेन्दु हरिश्चंद्र राष्ट्रीय शिखर साहित्य सम्मान’, अखिल भारतीय साहित्य कला मंच मुरादाबाद का ‘प्रवासी महाकवि हरिशंकर आदेश साहित्य चूड़ामणि सम्मान’, मित्र मंदिर कोलकाता द्वारा सार्वजनिक अभिनंदन आदि। संप्रति : कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर, 'अपनी भाषा' के अध्यक्ष और भारतीय हिन्दी परिषद् के उपसभापति। संपर्क : ईई-164 / 402, सेक्टर-2, साल्टलेक, कोलकाता-700091, फोन : 033-2321-2898, मो.: 09433009898, ई-मेल : amarnath.cu@gmail.com. 


डॉ. अमरनाथ से डॉ. ब्रज मोहन सिंह की बातचीत 

प्रश्न - आप 1994 में कोलकाता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में रीडर के रूप में आए । उसके पहले आप कहां थे? 

उत्तर- मेरी उच्चशिक्षा गोरखपुर विश्व्विद्यालय से हुई. डॉ. रामचंद्र तिवारी के निर्देशन में मैने ‘ आचार्य रामचंद्र शुक्ल का परवर्ती हिंदी आलोचना पर प्रभाव ‘ विषय शोध कार्य किया. यहां आने के पहले मै पवित्रा डिग्री कॉलेज मानीराम, गोरखपुर, आचार्य नरेन्द्र देव पी.जी.कालेज बभनान, गोंडा और नेशनल पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज , बड़हलगंज, गोरखपुर मे अध्यापन कर चुका हूं. 

प्रश्न- आप जब कलकत्ता विश्व्विद्यालय में आए तब से लेकर आज तक के शैक्षणिक माहौल में क्या परिवर्तन महसूस करते हैं । 

उत्तर- मैं प्राध्यापक के रूप में यह महसूस करता हूँ कि पहले विश्वविद्यालय के छात्र – छात्राओं में अध्ययन की ललक होती थी । पहले के विद्यार्थियों के प्रश्न अच्छे और उत्साहित करने वाले होते थे । आज संख्या बढ़ी है पर अध्ययन की ललक घटी है । उनमें शिक्षकों के प्रति श्रद्धा, आदर के भाव में भी कमी आयी है । पहले हिंदी पढ़ने के लिए मध्यम वर्ग , संपन्न मारवाड़ी परिवार के लोग भी आते थे । आज साहित्य का अध्ययन करने वाले आर्थिक दृष्टि से पिछड़े ज्यादा हैं । साहित्य पढ़ने – पढ़ाने की रुचि भी घटी है । 

प्रश्न – अभी- अभी लहक के पिछले साक्षात्कार मे प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने बताया है कि कोलकाता वि.वि. में पाठ्यक्रम में बदलाव, सेमेस्टर प्रणाली लागू करवाने में उनकी सक्रिय और केंद्रीय भूमिका रही है मानो सारे परिवर्तनों के नियामक वे ही हैं । आप अपनी भूमिका को कैसे रेखांकित करेंगे । 

उत्तर – हमारे वि.वि. का परिवेश डेमोक्रेटिक है और कोई भी बड़ा परिवर्तन सबके सहयोग के बगैर नहीं हो सकता । मैं तीन बार विभाग का अध्यक्ष रह चुका हूँ । पहले टर्म वर्ष 1997-99 के कार्यकाल में भी एम.ए. और एम.फिल. के पाठ्यक्रम बदले गए थे और वर्ष 2009-10 के दौरान जब सेमेस्टर प्रणाली लागू हुई तब भी मैं ही विभागाध्यक्ष था । उसी अवधि में एम. फिल और पी-एच.डी. के नये नियम और पाठ्यक्रम बने और उन दोनों ही कमिटियों का संयोजक मैं ही हूँ-आज भी । मुझे इस बात का संतोष है कि मुझे प्रो. जगदीश्वर जी और प्रो. शंभुनाथ जी का ही नहीं बल्कि विभाग के सभी सहयोगियों का भरपूर सहयोग मिला । यदि विभागीय सहयोगियों का सह्योग न मिले तो अकेले अध्यक्ष भला क्या कर सकता है। मुझे खुशी है कि एक विभागाध्यक्ष के रूप में अथवा पी-एच.डी. और एम.फिल. समिति के संयोजक के रूप में मेरे कार्यकाल में हुई बैठकों में सारे प्रस्ताव बहुमत से नही बल्कि सर्वसम्मति से पारित हुए । 

प्रश्न – कोलकाता वि.वि. के प्राध्यापक अपने को जनवादी परंपरा का वाहक और प्रगतिशील लेखकों के समर्थक के रूप में अपना परिचय देते थे या छवि बनाए रखना चाह्ते थे । पर 2010 के बीए. ऑनर्स के पाठ्यक्रम में से यशपाल का झूठा- सच उपन्यास और मुक्तिबोध जैसे कवि की कविता को हटा दिया गया और विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास को रखा गया । यह कैसी जनधर्मिता है जो परंपरा से काटती है या कह सकते हैं कि चयन की प्रक्रिया चयनकर्ता की विचारधारा और मनोवृति को प्रकट करती है । 

उत्तर – यह यूजी बोर्ड ऑफ़ स्ट्डीज का मामला है। उस समय संभवतः शंभुनाथ जी उसके चेयरमैन थे। यह प्रसंग मुझे ठीक से याद नहीं है। इस कमिटि में और भी मेंबर होते हैं । हो सकता है मैं उस बैठक में न रहा हूँ । यशपाल को पढ़ाना अच्छी बात है । यशपाल पुराने और विनोद कुमार शुक्ल नए हैं । हमारे लिए दोनो महत्वपूर्ण हैं। किसी भी बड़े रचनाकार को हटाकर उसकी जगह दूसरे बड़े रचनाकार को रखा जा सकता है। अगर एक ही रचनाकार हमेशा कोर्स में बने रहेंगे तो पाठ्यक्रम बदलेगा कैसे? । 

प्रश्न – अगर आप कल्पना करें कि डॉ. शंभुनाथ’ हिंदी मेला’ , आप ‘ अपनी भाषा ‘ और जगदीश्वर जी फेस बुक पर से अपनी सक्रियता कम कर एक साथ कोलकाता को जगाने का काम करें तो कैसा रहेगा ? 

उत्तर- यह एक आदर्श कल्पना है और आदर्श कभी यथार्थ नहीं होता। बुद्धिजीवियों के बीच मतभेद होता है पर न्यूनतम संवाद भी होते रहना चाहिए और यह संवाद हमारे बीच है । हम तीनों के बीच तालमेल बना रहता है । हम एक दूसरे के मंच पर जाते हैं । अपनी भाषा का काम भाषा के मुद्दे से संबंधित है तो हिंदी मेला का उद्देश्य साहित्य है और नई पीढ़ी में साहित्य और संस्कृति के प्रति रुचि पैदा करना भी है । हमारा उद्देश्य कुछ अलग-अगल जरूर है पर हम सब एक ही पथ के पथिक हैं जो बेहतर समाज बनाने की दिशा में अपनी सीमा में रहते हुए प्रयास करते हैं । 

प्रश्न कहा जाता है कि आप सब कोलकाता के प्राध्यापक निजी कारणों, स्वार्थों से एक दूसरे की कमियों को उजागर नहीं करते हैं । कुछ लोग तो ये कह्ते हैं कि आप प्रोफेसर शंभुनाथ से डरते हैं । 

उत्तर – विश्वविद्यालय का शिक्षक अगर डरने लगा तो वह अध्यापन क्या करेगा। शंभुनाथ जी हमारे अग्रज हैं और मैं अपने से वरिष्ठों का सम्मान करना अपना नैतिक दायित्व समझता हूं। शंभुनाथ जी हमारा क्या बना या बिगाड़ लेंगे कि मैं उनसे डरूंगा.। रही बात एक दूसरे की कमियों को उजागर करने की तो ऐसे लोगों को हमारे आदर्श कवि तुलसी ने ‘खलों’ की कोटि में रखा है.। मेरी समक्ष में हमारी नजर दूसरों के गुणों पर पहले पड़नी चाहिए। हम अपने सहयोगियों की कमियां ही क्यों देखें- इसके लिए तो पूरा समाज चौकस है ही। हम साहित्य – संस्कृति से जुड़े हुए लोग हैं, शिक्षक हैं। हम आपस में लड़ेगे तो समाज हमसे क्या शिक्षा लेगा। हमें एक दूसरे का सहयोग करना चाहिए. 

प्रश्न- वामपंथी शासन के दौरान कोलकाता विश्वविद्यालय में एक समय ऐसा था कि लोग जनवादी लेखक संघ के मेंबर होना पसंद करते थे । क्या आप कोलकाता विश्व्विद्यालय में आने के पहले जनवादी लेखक संघ के सदस्य थे ? आपने क्या सोचकर यह लेखक संगठन ज्वाईन किया था ? 

उत्तर – मैं कोलकाता वि.वि. में आने के पहले से ही जनवादी लेखक संघ की केंद्रीय समिति का सदस्य था । मैं जलेस के गठन के समय से ही उसका सदस्य था . उस समय मैं गोरखपुर के एक कालेज में अध्यापक था। जलेस के संस्थापकों में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले चंद्रबली सिंह हमारे यहां आए थे और दो दिन रुके थे उनसे लम्बी बाते हुई थी. मैं इसके पहले ही मार्क्सवाद से गहराई से परिचित हो चुका था और चेतना सांस्कृतिक मंच बनाकर उसके सचिव के रूप में सामाजिक-सांस्कृतिक कामों से जुड़ा हुआ था. चंद्रबलीसिह से प्रेरित होकर मैं जलेस का सदस्य बना. 1992 में जयपुर के राष्ट्रीय अधिवेशन में मुझे केंद्रीय समिति का सदस्य चुना गया। मैं कोलकाता 1994 में आया । यहां आने के कुछ दिन बाद से धीरे-धीरे जलेस से मेरा मोहभंग होने लगा. पटना में होने वाले 2003 के केंद्रीय अधिवेशन में जनवादी लेखक संघ के नाम को उर्दू में अंजुमन जम्हूरियत पसंद मुसन्नफीन जैसा नाम रखने का प्रस्ताव आया क्योकि यह संगठन हिन्दी- उर्दू लेखकों का संगठन है। मैंने इसका विरोध किया। मेरा तर्क था कि जनवादी लेखक संघ एक संगठन का नाम है , संज्ञा है. नाम नही बदला करता. यह तो वैसे ही है जैसे प्रेमचंद को मोहब्बतचंद कहे या लालकृष्ण अडवानी को सुर्ख स्याह अडवानी कहे. मेरा यह भी कहना था कि ऐसा कौन सा उर्दू लेखक है जो जनवादी लेखक संघ का अर्थ नहीं समझता और अंजुमन जम्हूरियत पसंद मुसन्नफीन का अर्थ समझ लेता है. हमारा उद्देश्य तो दोनो शैली के रचनाकारों को करीब लाने का होना चाहिए. क्या इस तरह अलग-अलग नाम रखने से हमारी दूरी कम होगी। जलेस हिंदी और उर्दू दोनों के लेखकों का एक सगठन है तो उसका दो नाम क्यों. कोई चाहे तो जलेस का नाम उर्दू लिपि में लिख सकता है । उस समय शिव कुमार मिश्र इसकी अध्यक्षता कर रहे थे । मैंने मंच से अपनी बात कही तो लोगों ने तालियां बजाकर मेरा समर्थन किया.। पर लोगों के समर्थन से ही सब कुछ नहीं होता है । उसके बाद केंद्रीय समिति से मेरा नाम काट दिया गया । विगत कुछ वर्षों से जलेस की गतिविधियों की मुझे जानकारी भी नहीं है। 

प्रश्न - बहुत लोग नौकरी पाने के लिए जनवादी लेखक सघ तथा सीपीएम में शामिल हुए थे और काम निकल जाने पर सारी क्रांतिकारिता भूल गए । आखिर वह कौन सी बात थी जहाँ आप जनवादी लेखक संघ में काम नहीं कर पाए या आप जो करना चाहते थे वह कर नहीं पा रहे थे । वह कौन सी मजबूरी थी जहाँ जनवादी लेखक संघ में सक्रिय रहते हुए भी आपको ‘ अपनी भाषा” संस्था का गठन करना पड़ा । 

उत्तर – ‘ अपनी भाषा” का गठन 1999 में हुआ और 2000 में उसका रजिस्ट्रेशन हो गया था। । बंगाल में आने के बाद यह अनुभव हुआ कि हिंदी और बंगला के रचनाकारों में अपेक्षित तालमेल नही है । वे एक मंच पर कम दिखायी देते हैं। मुझे लगा कि दोनों को जोड़ने की कोशिश करनी चाहिए । हमारे सामने बड़ी चुनौती अंग्रेजी की थी । अंग्रेजी सबके उपर हावी थी । वह साम्राज्यवाद की भाषा है, आतंक की भाषा है, अगर बंगला और अंग्रेजी दोनों जुड़कर काम करें तो उसके खिलाफ एक बड़ी ताकत बनेगी । इसी सोच के तहत ‘ अपनी भाषा ’ का गठन हुआ । हमने प्रतिवर्ष किसी एक रचनाकार को, जिसने हिंदी और किसी अन्य भारतीय भाषा को अपने अनुवाद कार्य तथा लेखन के माध्यम से सेतु बनाने का काम किया गया हो ‘ जस्टिस शारदा चरण मित्र स्मृति भाषा सेतु सम्मान ‘ देना आरंभ किया. इसके अलावा हम प्रति वर्ष एक बार भाषा के किसी गंभीर सवाल पर राष्ट्रीय संगोष्ठी करते हैं । भाषा विमर्श पत्रिका भी निकालते हैं जिसके अबतक पंद्रह अंक निकल चुके हैं और इसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसकी सात से आठ सौ प्रतियां छपती हैं और हम इसे नि : शुल्क वितरित करते हैं. भाषा के मुद्दे पर गंभीर संस्थाएँ बहुत कम हैं । 

प्रश्न - आप 1999 से ‘ अपनी भाषा ‘ से जुड़े हुए हैं और हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं के साथ सफल संवाद सेतु बनाने का काम भी कर चुके हैं । अपनी भाषा की मूल प्रतिज्ञा अपनी- अपनी मातृभाषाओं का उत्थान और विकास है । यह देखा गया है कि आप जिस जनपद से आते हैं वहाँ की मातृभाषा भोजपुरी है । आपने भोजपुरी के उत्थान और विकास के लिए कौन - कौन सा काम किया है और अपनी भाषा की ओर से भोजपुरी के किस साहित्यकार को सम्मानित किया है या नहीं । 

उत्तर- देखिए, हिदी बोलियों के समुच्चय का नाम है हिन्दी में ब्रजभाषा के सूरदास भी हैं और राजस्थानी की मीरा भी, अवधी के तुलसीदास हैं तो भोजपुरी के कबीर भी। आजकल हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हिन्दी की इन बोलियों के चंद ठेकेदार इन्हें संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग कर रहे हैं. इस तरह की मांग राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, हरियाणवी, कुमायूंनी-गढ़वाली, अंगिका और मगही तक के लिए हो चुकी है. फिर अवधी और ब्रजी ने कौन सा अपराध किया है कि उनको आठवीं अनुसूची में शामिल न किया जाय जब कि उनके पास हिन्दी साहित्य का स्वर्ण काल है. रामचरित मानस और सूरसागर जैसे ग्रंथ है. अगर ये बोलियाँ आठवीं अनुसूची में शामिल हो गयीं और बंगला, उड़िया, तमिल, तेलुगू की तरह स्वतंत्र भाषाएं हो गईं तो आने वाली जनगणना में इन्हें बोलने वाले हिन्दी भाषी नहीं गिने जाएंगे. फिर हमारे देश में हिन्दी बोलने वालों की संख्या अचानक घटकर बहुत कम हो जाएगी. और तब अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाने की मांग करने वालों के पास अकाट्य तर्क होंगे. याद रखें हिदी इस देश की राज भाषा सिर्फ इसलिए है कि बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से वह सबसे बड़ी भाषा है. उसकी संख्याबल की ताकत खत्म हो जाएगी तो उसके पास बचेगा क्या ? वह तो दिल्ली और मेरठ के आस-पास बोली जाने वाली कौरवी से विकसित हुई है। सच तो यह है कि बोलियों को मान्यता देने अर्थात आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग एक साम्राज्यवादी साजिश है। हमें इस साजिश को समझनी चाहिए और इसका पर्दाफाश करना चाहिए. आप को पता होगा कि पिछले दिनों ज्ञान के सबसे बड़े सर्च इंजन विकीपीडिया ने दुनिया की सौ भाषाओं की एक सूची जारी की है जिसमें हिन्दी को चौथे स्थान पर ऱखा गया है. अबतक उसमें हिन्दी को दूसरे स्थान पर ऱखा जाता था। पहले स्थान पर चीनी थी. यह परिवर्तन इसलिए हुआ कि इस सूची में भोजपुरी, मगही, मैथिली, अवधी, हरियाणवी और छत्तीसगढ़ी को रखा गया है और इस तरह इन्हें हिन्दी से अलग स्वतंत्र भाषा का दर्जा दिया गया है. आज भी यदि हम इनके सामने अंकित संख्याओं को हिन्दी बोलने वालों की संख्या में जोड़ दें तो फिर हिन्दी दूसरे स्थान पर पहुंच जाएगी. खेद है कि हिन्दी के विरुद्ध इस अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र को हमारे हिन्दी के बुद्धिचीवी भी नहीं समक्ष रहे है. 

हमारे सामने सवाल यह है कि क्या भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में डाल देने और इस तरह उसे हिन्दी से अलग कर देने से वह समृद्ध होगी या हिन्दी के साथ रहकर उसकी ताकत बढ़ेगी. अगर उसको समृद्ध करने की सचमुच चिन्ता है तो उसमें साहित्य रचिए, उनमें फिल्में बनाइए, उसे पाठ्यक्रमों में रखिए । हिंदी से अलग कर देने से तो भोजपुरी और हिंदी दोनों कमजोर होगी । गोरखपुर विश्वविद्यलय में हिंदी के पाठ्यक्रम में ’पुरइन पात’ नाम का एक भोजपुरी काव्य संकलन रखा गया है, जिसमें गोरखनाथ से लेकर गोरख पांडेय तक की कविताएं संकलित हैं । यह स्वागतयोग्य कदम है. ऐसा और जगह भी होना चाहिए । जो बोलियों के रचनाकार हैं वे पुरस्कार की लालच में बोलियों को मान्यता देने की लड़ाई को हवा देते हैं. आठवीं अनुसूची में शामिल होना हिन्दी का घर बंटना है। हम घर बंटने के खिलाफ है। 

प्रश्न - आज देखा जा रहा है कि केन्द्र और राज्य सरकारें संविधान की अष्टम अनुसूची में आने वाली भाषायों को संरक्षण दे रही हैं और कुछ जातीय भाषाएँ धीरे- धीरे मर रही हैं तो ऐसी हालत में मरती हुई भाषायों को छोड-कर संरक्षित भाषायों के पक्ष में खड़ा होना वैसे ही है जैसे कोई निर्बल को छोड़कर सबल के पक्ष में खड़ा होता है या किसी बड़े लाभ के लिए अपने को भुलाकर गैरों के साथ में जाता है । प्रश्न यह भी उठता है कि जो अपनी मातृभाषा को प्यार नहीं करेगा, उसकी उन्नति के लिए ( निज भाषा उन्नति अहै --- ) कुछ त्याग नहीं करेगा , वह दूसरी भाषा को क्या प्यार करेगा , चाहे वह हिंदी ही क्यों न हो । 

उत्तर – आज दुनिया में हर 15 दिन पर एक भाषा मर रही है । रोज–रोज नयी भाषाएं पैदा नहीं होती । अगर हम बोलियों को संविधान की अष्टम अनुसूची में डाल दें तो बहुत सारी कठिनाइयाँ पैदा होंगी । छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद वहां छतीसगढ़ी को मान्यता मिली किन्तु वहाँ 94 बोलियाँ बोली जाती हैं जिनमें हालवी और सरगुजिया जैसी समृद्ध बोलिया भी है. इन बोलियों को बोलने वाले लोग छत्तीसगढ़ी के खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं । क्योंकि उनकी उपेक्षा हुई. राजस्थान में राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग हो रही है किन्तु सचाई यह है कि राजस्थानी नाम की कोई भाषा वजूद में है ही नहीं। बल्कि वहाँ की 74 में से सिर्फ 9 ( ब्रजी, हाड़ौती, बागड़ी, ढूढाड़ी, मेवाड़ी, मेवाती, मालवी, शेखावटी, मारवाड़ी) बोलियों को राजस्थानी नाम देकर संवैधानिक दर्जा देने की मांग की जा रही है.। यह इतिहास के विरूद्ध जाने की कोशिश भी है । आज के ग्लोबलाइजेशन के युग में जहाँ अंग्रेजी का वर्चस्व तेजी से बढ़ रहा है इस देश में उसके विरूद्ध जो भाषा तनकर खड़ी हो सकती है वह हिंदी है । भोजपुरी के पास तो मानक गद्य भी नहीं है । उसमें मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई कैसे होगी.। यह गांव के सीधे सादे लोगों को जाहिल और गंवार बनाए रखने की साजिश भी है. बोलियों को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग करने वाले लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा रहे हैं ,खुद हिंदी की रोटी खा रहे हैं और बोलियों की लड़ाई लड़ रहे हैं ताकि बोलियां बोलने वालों पर अपना वर्चस्व कायम रहे । मैथिली को आठवी अनुसूची में शामिल हुए लगभग 10 साल हो गए, बिहार के मिथिलांचल में कितने मैथिली माध्यम के विद्यालय खुले? 

प्रश्न 3 आप जैसे लोगों की चिंता है कि अगर हिंदी क्षेत्र की क्षेत्रीय भाषाओं को मान्यता देकर संविधान की अष्टम अनुसूची में रखा जाता है तो हिंदी को खतरा होगा और वह अपनी संवैधानिक मर्यादा तथा अपनी मजबूत स्थिति खो देगी । क्या आपको लगता है कि हिंदी ने राजभाषा का दर्जा पाकर अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है ? लगता है कि सारे हिंदी वाले एक यूटोपिया में जी रहे हैं । आज संघ लोक सेवा आयोग से हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को विस्थापित करने की तैयारी चल रही है । बेरोजगार छात्र जंतर – मंतर से लेकर राहुल गाँधी के आवास तक प्रदर्शन कर रहे हैं । चार राज्यों को छोड़ दें तो न्यायालयों में आज भी राजकाज की भाषा हिंदी या अन्य भारतीय भाषा न होकर अंग्रेजी है । इसके खिलाफ अगर आईआईटी, दिल्ली के पाठक जी जैसे लोग जंतर – मंतर पर धरना देते हैं तो हिंदी वाले गायब हो जाते हैं । ऐसे मुद्दों पर आपकी संस्था ‘ अपनी भाषा ‘ ने कभी कोलकाता में एक दिन का धरना या विरोध प्रदर्शन किया है या हिंदी की लड़ाई को बंद कमरे से निकालकर सड़कों पर ले जाने के बारे में कभी सोचा भी है क्या ? 

उत्तर –हिंदी राजभाषा बनने के नाते नहीं बल्कि अपनी सामासिकता, लचीलापन, सहजता और वैज्ञानिक लिपि के कारणा फैली है । राजभाषा बनने से हिंदी का नुकसान ज्यादा हुआ है और वह कृत्रिम और दुरूह बन गयी है । भारत की अन्य भाषाओं का सद्भाव उसने खोया है. दूसरी भाषाओं को बोलने वालों को लगता है कि हिन्दी के लिए ही सरकारी धन का इतना इस्तेमाल क्यों । मीडिया ने हिन्दी के प्रसार में बड़ी भूमिका निभायी है. यह उसकी कृपा नही, उसकी मजबूरी है, बाजार की मांग है । 

जहां तक अपनी भाषा का सड़कों पर उतरने और अपनी मांगों के लिए धरना देने की बात है । हमंने कभी धरना नहीं दिया है। धरना देने और सड़कों पर उतरने के लिए संख्या बल की जरूरत होती है. यह सब राजनीतिक दलों अथवा संगठनों के लिए ही संभव होता है. हम तो धारा के विरद्ध काम कर रहे हैं. सारा माहौल तो अंग्रेजी के पक्ष में है। पढ़-लिखे लोग भी वस्तुस्थिति को नहीं समझ पाते। बहुत से हिन्दी के बुद्धिजीवी और लेखक कन्फ्यूज्ड हैं. वे नहीं समझते कि गाँव के गरीब बच्चे तभी मुख्य धारा में आ सकेंगे जब माध्यम भाषा हिंदी, बंगला, ओड़िया, असमिया आदि होगी । हमने 2010 में दिल्ली के गाँधी शांति प्रतिष्ठान में अपनी भाषा और उसकी बोलियों के अंतर्संबंध के मुद्दे पर एक ऐतिहासिक आयोजन किया था जिसमें देश भर से एक सौ से अधिक लेखक और बुद्धिजीवी उपस्थित थे और सभी अपने-अपने खर्चे पर आए थे. हमने कोलकाता, इलाहाबाद, वाराणसी, गोरखपुर, गया, लखनऊ, रायपुर आदि शहरों में प्रेस कांफरेंस करके इस मुद्दे पर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया है. इस विषय पर कई पत्रिकाओं को मैने हिन्दी के बुद्धिजीवियों से एक अपील भेजी थी जिसे तगभग डेढ़ दर्जन पत्रिकाओं ने विशेष महत्व देते हुए छापा था. ‘नवनीत’ ‘सबके दावेदार’, ‘अलाव’, ‘दस्तावेज’ ‘पाचवां स्तंभ’, ‘दो आबा’ ‘विश्वमुक्ति’,’आधुनिक साहित्य’ और ‘हंस’ जैसी पत्रिकाओं में से कुछ ने इस विषय पर विशेषांक निकाले और कुछ ने अपने संपादकीय में इसका उल्लेख किया. विभूतिनारायण राय ने म. गां. अं. हिन्दी विश्वविद्यालय बर्धा में हिन्दी का लोक नाम से तीन दिवसीय एक बड़ा आयोजन किया जिसमें मैं भी मौजूद था. इसके अलावा हमने पक्ष और विपक्ष के नेताओं तथा सभी बड़े राजनीतिक दलों के प्रमुखों तथा वरिष्ठ मंत्रियों को इस विषय पर पत्र लिखा है. हमने सड़क पर उतर कर जुलूस नहीं निकाला और नारे नहीं लगाए। क्योंकि मैं शिक्षक हूं और मेरी पहली जिम्मेदारी अध्यापन है। किन्तु हमारे प्रयासों के सकारात्मक परिणाम आने लगे हैं और तोग हकीकत को समझने लगे हैं. 

प्रश्न – डॉ. राम विलास शर्मा ने हिंदी जाति के भीतर बोलियों के अंतःसंबंध की बात तो की पर उर्दू को छोड़ दिया । बाद में आप जैसे या राम विलास शर्मा जी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले लोगों ने भी हिंदी जाति के भीतर उर्दू की विरासत को नहीं समॆट पाए या हिंदी की जातीयता के दायरे को छोटा किया । मेरे गाँव के मुसलमान आज भी भोजपुरी में बात करते हैं । 

उत्तर – मैंने अपनी ‘ हिंदी जाति ‘ किताब में इसकी चर्चा की है । वास्तव में हिंदी और उर्दू दोनों अलग भाषाएं नहीं है । दिक्कत ये है कि हम चाहकर भी एक साथ नहीं हो सकते । वोट की राजनीति सामने आ रही है । उर्दू को मजहब से जोड़ दिया गया है । जो काम कभी अंग्रेज कर रहे थे वही काम आज हमारी सरकार कर रही है । मैंने एक समय कोलकाता वि,वि, में उर्दू साहित्य का इतिहास पाठ्यक्रम में रखा था पर बाद में उसे हटा दिया गया । पढ़ाने वाले ही नही मिल रहे थे. दुर्भाग्य है कि जो गालिब को पढ़ता है वह तुलसी या निराला को नहीं पढ़ता और जो निराला को पढ़ता है वह मीर को नहीं पढता । प्रेमचंद हिंदी- उर्दू दोनों में पढ़े जाते हैं । उर्दू के रचनाकार गोपीचंद नारंग मुसलमान नहीं हैं पर उर्दू के विद्वान हैं । फिराक गोरखपुरी तो हिन्दू थे किन्तु उनके नाम पर उर्दू साहित्य मं फिराक युग चलता है. हिंदी- उर्दू की साझी विरासत है । राजनीतिज्ञों ने इसे बाँटा है, पर जनता इस भेद को आज भी नहीं मानती- राजनीतिज्ञों की लाख साजिश के बावजूद.। आज हिंदी की कविताओं की तुलना में उर्दू की गजलें और शेर जनता में ज्यादा प्रचलित है, जनता कवि सम्मेलन और मुशायरा में एक साथ बैठती है । आज भी हिंदुस्तानी संगीत ही मैने सुना है , हिंदी या उर्दू संगीत नहीं । आज भी हिन्दी फिल्में ही होती हैं उर्दू फिल्में नही. जबकि 80 प्रतिशत फिल्मों की स्क्रिप्ट उर्दू होती है. मुझे आज तक कोई भाषा वैज्ञानिक नहीं मिला जिसने उर्दू और हिन्दी को अलग-अलग भाषा कहा हो., दोनो के सर्वनाम एक, क्रियाएं एक, व्याकरण एक और बोलने वाले भी एक तो भाषा अलग कैसे हो सकती है. वैसे खुसरो से लेकर गालिब और मीर तक सबने अपनी भाषा को हिन्दवी या हिन्दी ही कहा है. यह सब भेद कृत्रिम है. 

प्रश्न .मेरा मानना ये है कि भारत का सच्चा बुद्धिजीवी वह है जो सत्ता और सरकार से समझौता नहीं करता और उसकी गलतियों को आगे बढ़कर दिखाता है। वह एक तरफ भष्टाचार को बेनकाब करता है तो दूसरी तरफ़ संप्रदायवादी शक्तियों को बेनकाब करने में पीछे नहीं रहता । (1) क्या इस कसौटी पर आप अपने को बुद्धिजीवी मानते हैं – हाँ या ना में जवाब दें । 


उत्तर- यह जनता तय करेगी । मैं अपने बारे में क्या बोलूँ । साहित्यकार को प्रतिपक्ष की भूमिका निभानी चाहिए । साहित्य्कार सत्ता से जुड़ेगा तो जनता की आवाज नहीं बन पाएगा.। साहित्यकार को शोषित वर्ग के साथ खड़ा होना चाहिए । 

( 2) क्या इस कसौटी पर आपको कोलकाता में कोई बुद्धिजीवी नजर आता है? हाँ या ना में जवाब दें । 
बहुत से हैं। किसी का नाम ले सकता क्योंकि दूसरे के छूट जाने का डर है.। 

(3) अगर पूरे भारत से कोई दो नाम लेना हो तो वे कौन होंगे । 

उत्तर - मेधा पाटकर, अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल 

प्रश्न - गोधरा कांड से जुड़े नरेन्द्र मोदी के हाथों या बाबरी मस्जिद को ढहाने वाले भारतीय जनता पार्टी या उनके नेता लाल कृष्ण आडवाणी या कोयला घोटाले , कॉमनवेल्थ घोटाले के मंत्रियों के हाथों या वोट के समय मुस्लिम कार्ड खेलने वाले मौलाना बुखारी के हाथों मुजफ्फरनगर दंगा को न रोक पाने वाले सरकार के हाथों आप पुरस्कार लेना पसंद करेंगे -- हाँ या ना में जवाब दें । 

उत्तर- वे हमें क्यों पुरस्कार देंगे ? हमने इनके पक्ष में नहीं लिखा । हम पुरस्कार के लिए लिखते भी नही. 

प्रश्न- अगर सचिन तेंदुलकर दें तो 

उत्तर – सचिन तेन्दुलकर बहुत अच्छे इन्सान और खिलाड़ी हैं . मैं उनका बड़ा प्रशंसक हूं. किन्तु उनको भारत रत्न दिये जाने के पक्ष में नहीं. भारत रत्न का सम्मान किसी सेलिब्रिटी को नहीं, बल्कि समाज के हित लिए जीवन समर्पित करने वाले असाधारण व्यक्तित्व समाजसेवी या वैज्ञानिक को मिलना चाहिए. मेरी समझ में क्रिकेट से इस देश का नुकसान ही ज्यादा होता है. जिस समय क्रिकेट होता है इस देश के कार्यालयों में काम काज ठप पड़ जाता है. यह अमीरों का खेल है. इसके नाते भारत जैसे देश के गरीबों के लिए उपयोगी खेल पीछे छूटते जा रहे हैं. हमारे देश को हाकी, वालीबाल, कबड्डी, कुश्ती आदि खेल सूट करता है. जिसमें खर्च भी कम होता है, समय भी कम लगता है और शरीर के सभी अंगों की वर्जिश भी हो जाती है. हमें इन खेलों पर ध्यान देने की जरूरत है । 

प्रश्न – क्या आपकी अपनी भाषा धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक संस्था है ? 

उत्तर – हाँ 

प्रश्न – अभी- अभी यह सुना गया है कि आज 15 दिसम्बर , 2013 को कोलकाता के किसी संस्था द्वारा ‘ अपनी भाषा के सचिव डॉ. ऋषिकेश राय को उन लोगों के हाथों द्वारा और उनके साथ सम्मानित किया गया है जो 06 दिसम्बर , 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस में कारसेवा करने वाले, उनका उत्साह बढ़ानेवाले और उस कुकृत्य का मौन- मुखर समर्थन करने, कराने वाले की पंक्ति में थे और उससे भी बड़ी खतरनाक बात ये कि वे साम्प्रदायिक एवं कट्टरतावादी नरेन्द मोदी के गोधरा नरसंहार से संबंधित विचारधारा का समर्थन करते हैं । कोलकाता के वामपंथी कवि कहे जानेवाले पाषाण जैसे दिग्भ्रमित कागजी शेर कवि भी संभवतः शामिल हैं । इस संबंध में आपके क्या विचार हैं ? 

उत्तर- - ‘ अपनी भाषा ‘ का संबंध किसी राजनीतिक दल से नहीं है । डॉ. ऋषिकेश राय या किसी अन्य का किसी से पुरस्कार लेना उनके व्यक्तिगत निर्णय हैं । जहाँ तक बाबरी मस्जिद और गोधरा नरसंहार की बात है वह इतिहास का एक धब्बा है । इतिहास में ऐसी गलतियाँ होती हैं जिसे भुलाया नहीं जा सकता । इस देश में हमें सबको साथ लेकर चलना होगा । मुजफ्फरनगर की घटना तो अत्यंत शर्मनाक है । आजादी के बाद पहली बार दंगे गांवों में पहूंचे . वहां तो आप कर्फ्यू भी नही लगा सकते . गांवों के लोग घरों में कैद हो जाएंगे तो पशुओं को चारा कहां से मिलेगा. वहां के दंगों से प्रभावित लोगों का परिस्थ्तियों की कल्पना करके ही मैं विचलित हो जाता हूं. इन राजनेताओं में क्या इन्सानियत बिल्कुल नहीं होती?. 

प्रश्न – डॉ. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि कोलकाता में पुरुषों की तुलना में महिला रचनाकारों द्वारा लेखन ज्यादा हुआ है । आप कोलकाता के रचनाकारों के बारे में क्या सोचते हैं । हितेन्द्र पटेल, प्रफुल्ल कोलख्यान , डॉ’ ऋषिकेष राय , विमलेश त्रिपाठी आदि या अन्य लेखकों के रचना कर्म के बारे में आप की क्या राय है ? 

उत्तर- मुझे कोलकाता की रचनाशीलता सन्तोषजनक लगती है. लेखन में मैं पुरुष – स्त्री का भेद नहीं करता । आज स्त्री विमर्श जहां जा रहा है उसकी मैं प्रशंसा नहीं कर सकता. बैसे भी जहाँ कृष्ण बिहारी मिश्र जैसे लेखक मौजूद हो वहाँ पुरुष लेखकों को कम आँकने वाली बात कैसे हो सकती है । कई लेखिकाओं के बराबर साहित्य तो अकेले जगदीश्वर जी लिख चुके हैं . उनकी रफ्तार का मुकाबला भला कौन सी लेखिका कर सकती है? हिंदी आलोचना मे डॉ. शंभुनाथ जी ने एक खास जगह बनायी है. हितेन्द्र पटेल में नए विमर्श की संभावनाऎँ हैं । डॉ. ऋषिकेष राय भी अध्ययनशील हैं और आलोचना में अच्छा काम कर रहे हैं । विमलेश त्रिपाठी की कविताए भी प्रभावित करती है । कविता के साथ दुखद स्थिति यह है कि कविता के जंगल में अच्छी कविताऎँ छूट जा रही हैं । कविता लिखना और छपना आसान हो गया है इसीलिए अच्छी कविताएं छाँटना और पढ़ना आसान नहीं है । हिंदी कविता जनता से कटती जा रही है । आज कवियों को इसके बारे में सोचना चाहिए । निराला, नागार्जुन की परंपरा खत्म हो रही है । गजल, नज्म आदि लोकप्रिय हैं । 

प्रश्नः एक अन्तिम सवाल, अभी कुछ दिन पहले आप के संपादन में ‘गांव’ नाम की एक और पत्रिका मैने देखी. भाषा विमर्श के रहते हुए इसे निकालने की क्या जरूरत आ पड़ी? 

उत्तर- दरअसल. मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के एक गांव में हुआ था. मां और पिताजी के निधन के बाद गांव पर पिछले 22 वर्ष से कोई रहता नहीं है. मेरी ग्रेजुएशन तक की शिक्षा तो गांव में ही हुई थी. गांव की मेरी सम्पति मूझे विरासत में मिली है वह मेरे द्वारा अर्जित नही है इसलिए उसे बेचने का भी मेरा अधिकार नहीं है. गत वर्ष मैंने अपने माता पिता के नाम पर एक ट्रस्ट बनाया है. मैने तय किया कि गांव की मेरी सम्पत्ति गांव की प्रगति के लिए ही खर्च होगी. कुछ अपने पास से भी लगाते रहेंगे. विगत अक्टूबर में पहला आयोजन गांव पर हुआ अच्छा लगा. गांव के मेधावी बच्चों को सम्मान, गांव में खेल प्रतियोगिताए., नि:शुल्क चिकित्सा शिविर, लोक संगीत लोकरंग आदि का आयोजन हुआ. उसी अवसर पर गांव नामक पत्रिका के प्रवेशांक का भी लोकार्पण हुआ. इस पत्रिका में भाषा और साहित्य की उपस्थिति गौंण होगी. इसमें गांव से संबंधित समस्याओं पर लेख होंगे और गांव की प्रतिभाओं को आगे लाना इसका मुख्य उद्देश्य होगा. अभी तो पहला अंक आया है. मूल्यांकन तो आप लोगों को करना है.

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