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शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

अपराधियों के बीच - दिनेश पालीवाल

दिनेश पालीवाल 

३१ जनवरी १९४५ को जनपद इटावा (उ.प्र.) के ग्राम सरसई नावर में जन्मे दिनेश पालीवाल जी सेवानिवृत्ति के बाद इटावा में स्वतंत्र लेखन  कर रहे हैं। आप गहन मानवीय संवेदना के सुप्रिसिद्ध कथाकार हैं । दुश्मन, दूसरा आदमी , पराए शहर में, भीतर का सच, ढलते सूरज का अँधेरा , अखंडित इन्द्रधनुष, गूंगे हाशिए, तोताचश्म, बिजूखा, कुछ बेमतलब लोग, बूढ़े वृक्ष का दर्द, यह भी सच है, दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की, रुका हुआ फैसला, एक अच्छी सी लड़की (सभी कहानी संग्रह) और जो हो रहा है, पत्थर प्रश्नों के बीच, सबसे खतरनाक आदमी, वे हम और वह, कमीना, हीरोइन की खोज, उसके साथ सफ़र, एक ख़त एक कहानी, बिखरा हुआ घोंसला (सभी उपन्यास) अभी तक आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं। 16 कहानी संग्रह, 8 उपन्यास प्रकाशित। इसी वर्ष दिल्ली में लगे विश्व पुस्तक मेला में ’छोटे शहर की लड़कियां’ शीर्षक नया कहानी संग्रह अनेक गण्यमान समीक्षकों और लेखक बंधुओं के बीच विमोचित। अब तक 500 से अधिक कहानियां हिन्दी की सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।अनेक कहानियां पुरस्कृत। अनेक का टेली-प्ले और रेेडियो पर प्रसारण। रचनाकर्म पर अब तक बारह शोधार्थियों व्दारा विभिन्न विश्वविद्यालयों में शोध-कार्य संपन्न। अनेक कहानियां भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनूदित। कई कहानियां विभिन्न विश्वविद्यालयों के स्नातक पाठ्यक्रम में शामिल। संपर्क: राधाकृष्ण भवन, चौगुर्जी, इटावा (उ.प्र.)। संपर्कभाष: ०९४११२३८५५५। यहाँ पर आपकी एक कहानी दी जा रही है-

     
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
रात गहराई तो भीतर के डर ने मन को पूरी तरह जकड़ लिया। नहर के पुल पर बस के इंतजार में बैठे हुए एक घंटा निकल गया तो बेचैनी बढ़ गई। कहां रह गई बस? गंाव में बताया था, अखिरी बस शाम सात बजे के करीब आती है। इस वक्त मोबाइल में आठ बज चुके थे। नहर पानी से उफन रही थी। जिस रास्ते आया था उस पर शीशम, आम, जामुन, पाकड़ और पीपल के घने वृक्ष भुतहा और डरावने लग रहे थे। यहां कोई लूट के इरादे से आ जाए और मार कर इस नहर में फैंक दे तो? सवाल ने आतंकित कर दिया। गांव के लोग बता रहे थे, नहर में अक्सर ही लाशें तैरती हुई मिलती हैं। पुलिस उन्हें दूसरे जिले से बह कर आने वाली लावारिस बता कर खाना-पूरी कर लेती है। उनकी शिनाख्त की कोशिश तक नहीं करती। अपराध कम हो रहे हैं, यह हर थाने को दिखाना सरकारी मजबूरी है! जबकि सचाई सबको पता है।
उसी वक्त चार-पांच काले साए आ कर उस पुल पर बैठ गए। भीतर का डर और बढ़ गया। कैसा वक्त आ गया है, अकेला आदमी दूसरे आदमियों से किस कदर डरने लगा है। आपसी भरोसा किस कदर उठ गया है। मन को गांव की तरफ मोड़ने की कोशिश की। आना ही नहीं चाहिए था। दूर के रिश्ते की मौसी लगती हैं। क्या जरूरत थी ऐसे वाहियात रिश्ते को निभाने के लिए यहां आने की और जिंदगी का खतरा मोल लेने की? लोग सिर्फ अपना जीवन ही नहीं जीते, दूसरों का और दूसरों के भीतर अपना भी जीते हैं। 

फोन मौसी ने किया था--आओ और इस बदनामी के कीचड़ से किसी तरह निकालो। तुम्हारा तो शहर में बहुत परिचय है। और कोई तो मुझ बेवा औरत की सुनेगा नहीं। लड़की ने बिरादरी में नाक कटा दी। अपने आदमी को छोड़ दिया। दूसरे किसी के साथ मुंह काला कर भाग गई। अपने जवान बच्चों तक का लिहाज नहीं किया। गांव में सब थू-थू कर रहे हैं। घर से निकलना मुश्किल हो गया है। मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा, क्या करूं, कैसे करूं? जी करता है, नहर में कूद कर जान दे दूं। कालिख पुते चेहरे को लेकर गांव के लोगों के बीच कैसे जिऊं? शहर में वह कलमुही तुम्हारे पास ही रह कर पढ़ी-लिखी थी। तुम्ही उसे समझा-बुझा कर किसी तरह अपने आदमी और बच्चों के पास घर वापस भेजो वरना...।

मौसी को वह लड़का मैंने ही बताया था--पढ़ा-लिखा है। शरीफ है। बिरादरी का है। मेहनती है। जिले स्तर का अपना छोटा अखबार निकालता है। नामा बहुत नहीं कमा पाता पर नाम जरूर कमाया है। राजनीतिक रूप से सचेत और सक्रिय व्यक्ति है। आन्दोलनों में हिस्सा लेता है। जुनूनी है। देश-दुनिया और समाज को बदलने के सपने देखता है। सपने देखना बुरी लत नहींे कही जा सकती। बुरा है सपने न देखना। सपनों का मर जाना। जानवर की तरह चुपचाप जीना। सिर्फ कमाना, खाना-पीना, शादी करना, बच्चे पैदा करना और मर जाना! हालांकि हम सब यही करते हंै। वह सिर्फ यही नहीं करते रहना चाहता। रीतिका पढ़ी-लिखी और समझदार लड़की है। उसके साथ सुखी और संतुष्ट रहेगी।

पुल पर बैठे किसी साए ने अचानक बीड़ी सुलगाने के लिए माचिस की तीली जलाई तो रोशनी में उनके चेहरों को देखने की नाकाफी कोशिश की। सब नौजवान देहाती लड़के लगे।

--बस में वह अकेली नहीं आ रही। उसके साथ उसकी पांच-छह साल की लड़की भी है। गैंगरेप के दौरान उसकी लड़की का क्या करेंगे हम लोग? वह चीखी-चिल्लाई तो उसे मारना पड़ेगा। बच्चों को मारना अच्छा नहीं लगता यार! उसकी मां की तो हम लोग दुर्गति कर देंगे। पर बच्ची? उसका क्या? यह सोचो।

--सबसे पहले उसकी लौंडिया को ही नहर में फैंक देंगे। चीखी-चिल्लाई तो गर्दन टीपने में कितनी देर लगेगी? रात के अंधेरे में नहर में फैंकना...न कोई देखेगा, न उसकी आवाज सुनेगा। डूब मरेगी।

--नहीं यार। जवान औरत को हम लोग भुगत सकते हैं। उसके स्तन काट दें। उसके अंगों में तेजाब उड़ेल दें। लोहे की सरिया घुसेड़ कर उसके मुंह से निकाल दें! यह सब करते हुए हमें कतई हिचक नहीं होती। पर बच्चों को मारना बहुत अखरता है। जाने क्यों उन्हें मारते वक्त हमें अपने बच्चांे का चेहरा याद आ जाता है और हमारे हाथ कांप जाते हैं।

बीड़ी की लाल सुलगन में उनके खूंखार चेहरे लाल और खूनी दिखाई दे रहे थे। कोई और भी उनकी बातें सुन रहा है, इसकी उन्हें जरा भी परवाह नहीं थी। पुलिस और कानून का शायद उन्हें कोई खौफ नहीं था।

--औरत का आदमी उससे छुटकारा चाहता है इसीलिए उसने उसे इस इलाके में आखिरी बस से भेजा है। हमें पैसे से मतलब है। औरत जवान है तो उसके साथ गैंगरेप भी कर लिया जाए! रेप के बाद उसका तिया-पांचा कर टुकड़े इसी नहर में बहा देंगे। यह उसके आदमी की गलती है कि गैया के साथ उसकी बछिया भी भेज रहा है! हमारा इसमें क्या कसूर? बाप को सोचना था यह। इसका मतलब है, वह दोनों से छुटकारा चाहता है। हम तो उसके मुक्तिदाता हैं।

--लेकिन हमें पैसा तो एक हत्या का मिलेगा। हम मुफ्त में दो खून क्यों करें? पैसा एक का ठहरा है। दो का नहीं! हम लोग मुफ्त में कभी कोई काम नहीं करते।

--उस औरत का मजा ब्याज समझ लेना! एक साया हौले-हौले किंतु खौफनाक हंसी हंसा!

सुन कर भीतर-भीतर कांप गया। कैसे लोग हैं! क्या करने के इरादे से नहर के इस पुल पर आ बैठे हैं? ऐसी खतरनाक बस में जाना सही होगा? लेकिन...अब वापस गांव भी तो नहीं जाया जा सकता। तीन-चार किलोमीटर का रास्ता इस नहर की पटरी-पटरी तय करना हा़ेगा। किनारे के कच्चे रास्ते पर ये घने काले वृक्ष! खेतों में खड़ी फसलें। लुटेरे-हत्यारे कहीं से भी निकल कर सामने आ हमला कर सकते हैं। अखबारों में रोज ऐसी खबरें छापता है सदानंद। 

--तुम कौन हो जी? सहसा उनमें से एक साए ने कड़क आवाज में अंधेरे में पूछा। आवाज से फूंक सरक गई।
गांव का नाम बता कांपती आवाज में बोला--मौसी के पास आया था। वापस शहर जा रहा हूं, अगर बस आ जाए तो!

--लगता है इस हरामी ने हमारी बातें सुन ली हैं। इसे भी निबटाना पड़ेगा। एक ने कहा।

--इसे तो अभी निबटाए देते हैं! एकाएक तीन साए निकट आ कर खड़े हो गए। भय से कांपने लगा। अब?

--देखिए हमें आपके काम से क्या लेना-देना? आप चाहे जो करें। हमने न कुछ सुना और न अंधेरे में कुछ देखा। हम न आप को पहचानते हैं, न हम इस इलाके के रहने वाले हैं। दूर के रिश्ते की मौसी पास के गांव में रहती हैं। उन्होंने बुलाया था। उनसे मिलने आया था। अब वापस जा रहा हूं।

--क्यों बुलाया था मौसी ने? चैथा अब तक दूर बैठा बीड़ी फूंक रहा था। पास अया। यमदूत की तरह सिर पर खड़ा हो गया। गला सूख गया। सांस आनी बंद हो गई। ये लोग कुछ भी कर सकते हैं।

--उनकी बेटी अपने मरद को छोड़ कर किसी और के साथ चली गई है। बेटी के जवान बच्चे हैं। बिरादरी में बदनामी हो रही है। मौसी गांव-समाज में कैसे मुंह दिखाएं? आने का मकसद बताया।

सुन कर सब हंसने लगे। हंसते हुए लड़की के मर्द की मर्दानगी और औरत की जरूरतों को लेकर बड़ी भद्दी बातें कहते रहे निकट खड़े। चुप रहने और उनकी बातें सुनने-सहने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था।

--तो तू क्या सांडे का तेल बेचता है जो उसकेे...पर मल कर उसकी मर्दानगी जगाएगा साले हरामी की औलाद? यहां क्यों मरने चला आया मौसी की सुनने? जानता नहीं है, ऐसे कुबखत यहां कोई आता-जाता नहीं है।

पता नहीं अपनी सफाई में मैं क्या-क्या और कितनी देर तक हकलाता रहा! बस आ गई। कुछ सोच पाता और बस में चढ़ पाता उससे पहले ही वे लोग असलाह लहराते बस पर झपट पड़े और किसी युवती को उसकी बच्ची के साथ घसीट कर बाहर निकाल लाए। बस में एकदम चीख-पुकार मच गई। हड़बड़ाई सवारियांे को असलाह देख कर सांप सूंघ गया। इस बीच मैं चुपचाप बस में घुस पीछे की खाली सीट पर बैठ गया।

युवती सहायता के लिए जोर-जोर से चीखने-चिल्लाने लगी। हाथ-पांव चला संघर्ष करती हुई अपने आपको बचाने और उनसे छुड़ाने की कोशिश करती रही। दूसरे किसी ने हिम्मत नहीं दिखाई। कंडक्टर और ड्राईवर ऐसे तटस्थ बने रहे जैसे कुछ हुआ ही नहीं। एक ने बस चालक को धमकाया--भगा ले जा साले बस को वरना...।

चलती बस में काफी दूर तक सन्नाटा छाया रहा। सिर्फ बस के इंजन की घुरघुराती आवाज कानों में गूंजती रही। जान बची और लाखों पाए की मुद्रा में सब अपनी जान बच जाने के लिए ईश्वर का आभार मानते रहे।
--इस नहर के पुल पर रोज यही तमाशा होता है। सब जानते हैं पर कोई कुछ नहीं करता।

--कौन क्या करे? नेताओं को अपनी कुर्सी से मतलब है और पुलिस को अपने हिस्से से। किसी ने कहा।
--हम लोगों ने लड़की को बचाने की कोशिश क्यों नहीं की? मैंने सवाल उछाला। सब देर तक चुप रहे।
--उन पर असलाह थे। हम निहत्थे क्या कर सकते थे? अपनी जान बचाएं या लड़की की इज्जत-आबरू?
--अगर लड़की की जगह हममें से किसी का लड़का होता तो? सवाल घुमा कर पूछा।

--बचाने की कोशिश करते पर असलाहों के आगे किसका वश चलता है? ऐसा हर जगह हो रहा है और हमें बर्दाश्त करना पड़ रहा है। कोई किसी को नहीं बचाता। गुंडों-बदमाशों का राज चल रहा है। ऊपर वाले की मेहरवानी जब तक है, हम लोग बचे हुए हैं। वरना जिस दिन आ जाएगी, इनके हत्थे चढ़ जाएंगे, मारे जाएंगे। अपने प्रदेश में तो यही हो रहा है।

--हमें लगता है हत्या, अपहरण, गुंडागर्दी, बलात्कार, लूटमार, हिंसा के हम सब आदी हो गए हैं। किसी के साथ कुछ भी होता रहे, हमें सिर्फ अपने से मतलब रहता है। दूसरे से नहीं। हम सब तमाशबीन हैं। इस बस में तीन-चार और महिलाएं हैं। किसी के भी साथ यह हो सकता था। हमें कुछ करना चाहिए था या नहीं? मैं चुप नहीं रहना चाहता था।

--आपने ही बचाने की कोशिश क्यों नहीं की? बातें बनाना आसान है जनाब। गोली का सामना करना बहुत कठिन। हम सब अपने मतलब से मतलब रखने के आदी हो गए हैं। दूसरे जाएं भाड़ में! हमें क्या पड़ी? पुलिस और कानून का डर हम सबके दिलों से निकल गया है। हम जानते हैं, पूरी व्यवस्था अपराधियों और पाखंडियों के हाथों में है। लोगों को लूटमार, डकैती, बलात्कार, हत्या, अपहरण करने में कतई हिचक नहीं रह गई। हमें पता है, किसी का कुछ बिगड़ने वाला नहींे है। अपराधियों को पता है, वे अपराध करेंगे और पकड़े नहीं जाएंगे। पकड़ भी जाएंगे तो कानून इतना लचर और बिकाऊ है कि किसी का कुछ होना नहीं है। अपराधियों को खौफ क्यों हो? ऊपर उन्हें बचाने वाले आका बैठे हैं। नैतिक-अनैतिक जैसे सवाल हमारे लिए अब बेमानी हो गए हैं। हम सब सोचने लगे हैं, किसी आका से अपना टांका भिड़ा लें और बेखटके मनमानी और अपराध करें! वोट दें या हिस्सा दें। हम बचे रहेंगे। यही सब जगह हो रहा है।

--हमें नहीं लगता...यह सब हम अपनी खाल बचाने के लिए पोच कुतर्क गढ़ रहे हैं?
--हां। तो...?
--क्या मतलब हां तो...? मेरे भीतर कुछ सुलगने लगा था। भीतर की चुनचुनाहट स्वर में भी उभर आई थी।

--हां तो का मतलब सबकुछ। हां तो का मतलब हम किसी दूसरे के लिए अपनी जान जोखिम में क्यों डालें? हां तो का मतलब हमें सिर्फ अपने मतलब से मतलब रखने का कुबखत है यह। हां तो का मतलब, अगर हम मार दिए गए तो हमारे बीवी-बच्चों का क्या होगा? जमीन-जायदाद और खेत-टपरिया का क्या होगा? हमारे लड़कों-बच्चों को रोटी कौन देगा? हां तो का मतलब जब बस ऐसे अपराधियों के इलाके से गुजर रही हो तो हमारी खैरियत इसी में है कि हम चुप रहें और अपने आप को किसी भी कीमत पर बचाएं। हां तो का मतलब है, हम बचेंगे तो हमारी दुनिया बचेगी। हमारे अपने बचेंगे। हमारा अपना संसार, अपना समाज, अपना घर-परिवार और अपनी पूरी कायनात बचेगी! हमारे परिवार की जिंदगी की पूरी धुरी हमारी जिंदगी के इर्द-गिर्द ही घूम रही है बरखुरदार। दूसरों के लिए हम उस धुरी का धुरा क्यों बेमतलब खींच दें? इतना मूरख समझ रखा है क्या हमें? इस हां तो में उन सारे सवालों के जवाब हैं जो तुम हम से पूछना चाहते हो! इस हां तो में वह सब है जो हम तुमसे कहना चाहते हैं। तुमसे या किसी से भी और कभी भी, कहीं भी! हम बचेंगे तो हमारे सुख-दुख बचेंगे। अपने दैहिक और आत्मिक आनन्द बचेंगे। इनसे वंचित हो हम अभागे क्यों बनें यार, यह बताओ तुम?

कितना फर्क है इन सबकी सोच में और सदानंद की सोच में! सहसा सोच गया मैं। ये सब और हम सब सिर्फ अपने लिए जीना चाहते हैं, जबकि सदानंद सबके लिए जीना-मरना चाहता है। रीतिका का उससे इन्हीं बातों को लेकर झंझट होता रहता था। उसे अपनी और अपनेे परिवार की कम, दीन-दुनिया की फिकर ज्यादा रहती थी। राजनीतिक उठापटक उसे जब-तब बहुत उत्तेजित करती राहती थी और वह अपने अखबार में इन सब बातों को लेकर सबको नश्तर चुभोता रहता था। इससे उसने अपने तमाम दुश्मन बना लिए थे। कई बार उस पर हमले भी हुए थे। उसके बीवी-बच्चों को भी धमकियां दी गई थीं। रीतिका अक्सर आ कर मुझसे इन बातों की शिकायतें करती रहती थी--समझाइए भाई साहब इन्हें। हमारी तो ये सुनते-मानते नहीं हैं। आप की शायद सुन-मान लें। ऐसे कैसे काम चलेगा? हम कब तक सांसत में इस तरह जीते रहेंगे? बखत देख कर काम क्यों नहीं करते? रोज कहते हैं हम, बहुत बुरा बखत है। अपने हाथ-पांव बचा कर लिखिए-पढ़िए, पर ये न हमारी सुनते हैं, न अपने बच्चों की। हमने तो तय कर लिया है, किसी तरह लड़की के हाथ पीले हो जाएं, उसके बाद इनकी दुनिया से अलग हो जाऊंगी। ये जाने, इनकी खब्त जाने! हमारी बला से! रह गया लड़का, तो वह पढ़-लिख कर अपने हाथ-पांव चला कमा-खाएगा। इनकी जरूरत हममें से किसी को नहीं रहेगी। भाड़ में जाए इनकी दुनिया, इनका समाज, इनकी बेसिर-पैर की पगलाहट भरी बातें!

मौसी से ये सब बातें कहने का कोई मतलब नहीं था। वे यह सब नहीं समझ सकती थीं। उनकी दुनिया में पति का मतलब था, परमेश्वर। परमेश्वर कितना ही बुरा हो, उसे औरत को निभाना ही चाहिए। औरत हर कीमत पर अपने लंपट, दारूबाज, औरतखोर, जुआरी, कोढ़ी, अपाहिज, बीमार, अशक्त-असमर्थ, पागल, हिंसक और दगाबाज मर्द को निभाए, यही उसका दीन है, यही उसका धरम! आदमी के हजार ऐब कोई नहीं गिनता। औरत के दामन पर एक दाग भी कोई बर्दाश्त नहीं करता। जरा इधर-उधर हुई नहीं कि लोग उसे चट बदचलन ठहरा देते हैं। बदचलनी किसे कहते हैं? किसी से हंस-बोल लेना भी औरत के लिए गुनाह क्यों हो जाता है? आदमी सरेआम छिनरई करता डोले, दूसरी औरतों से ऐलानिया रिश्ते रखे, बीवी-बच्चों के सामने अपनी रखैलों को बिस्तर पर लिए पड़ा रहे, उसकी बदचलनी की चर्चा तक कोई नहीं करता पर औरत की कच्ची दीवार में लोग तुरंत सूराख कर लेते हैं। उसकी गलती की कहीं मांफी नहीं मिलती। मर्द के हजार गुनाह औरत को फर्ज समझ कर मांफ कर देने की सब नसीहत करते हैं। औरत दुनिया के रेगिस्तान में ऊंटनी होती है। उस पर एक महावत को हर वक्त सवारी किए रहना चाहिए। नाक में नकेल और मुंह में लगाम पड़ी रहने से ही वह सही रास्ते चलती रह सकती है। वरना उसका बहकना तय मानते हैं सब। तमाम मुंहफट मर्दवादी मर्द सरेआम कह देते हैं--औरत को ईश्वर अगर नाक न दे तो वह नकटी गू तक खाने में संकोच न करे! क्या रीतिका ने ऐसा ही कुछ किया है इस उमर में?

जवाब रातिका की बेटी रमा ने उसके घर पहुंचने पर मुझे दिया--ममी की जगह अगर मैं होती तो ऐसे पागल-सनकी को शुरू में ही छोड़ कर किसी और के साथ चली जाती। पता नहीं, ममी क्यों पापा को इतनी उमर तक झेलती रहीं!

Apradhiyon ke Beech - A Hindi Story of Dinesh Paliwal

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