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रविवार, 6 दिसंबर 2015

संस्मरण : मेरी पहली किताब - विभावसु तिवारी-

विभावसु तिवारी 

विभावसु तिवारी जी का जन्म 12 अगस्त, 1951 को दिल्ली में हुआ। वर्ष 1973 में दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास विषय में एम.ए. करने के बाद आपने पत्रकारिता की डिग्री प्राप्त की और फिर जर्मनी जाकर जर्नलिज्म की एंडवांस पढ़ाई की। लगभग पांच वर्ष तक एक राष्ट्रीय न्यूज ऐजेंसी में काम करने के बाद आप प्रतिष्ठित समाचार पत्र नवभारत टाइम्स (टाइम्स आॅफ इंडिया ग्रुप) से जुड़ गए। इस समाचार पत्र के लिए दिल्ली में लगभग 33 वर्ष तक समाचार संकलन, सम्पादन और लेखन कार्य करते रहे। सशक्त रिपोर्टिंग के लिए कई संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत किए गए। सरकारी निमंत्रण पर कई देशों के अतिथि रहे श्री विभावसु तिवारी राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय राजनीति एवं सामाजिक पहलुओं पर पैनी नजर रखते हैं। आपने कई शिक्षण संस्थाओं के संचालन मंडल के सदस्य के रूप में सक्रिय योगदान दिया। उत्तर प्रदेश सरकार और यूजीसी से मान्यता प्राप्त एक विशिष्ट निजी शिक्षण संस्थान से आप सक्रिय रूप से सम्बद्ध हैं। आप कई समाचार पत्र पत्रिकाओं के सलाहकार सम्पादक भी हैं। आपका बहुचर्चित व्यंग्य संग्रह ‘काॅफी मंथन' अगस्त 2014 में प्रकाशित हुआ। हाल ही में प्रकाशित ‘केसरिया सूरज' काव्य संकलन स्वानुभवों पर आधारित कविताओं का गुलदस्ता हैं। आपकी जीवन यात्रा पर केन्द्रित संस्मरण ग्रंथ शीघ्र प्रकाशित होने जा रहा है। सम्पर्क : टी- 8 ग्रीन पार्क एक्स्टेंशन, नई दिल्ली- 110016, मोबाईल- 9810006411

‘‘ तिवारी जी आप की ‘काॅफी मंथन‘ किताब छप गई है। अच्छी छपी है। आप को पसंद आएगी। किताबों का पहला पैकेट मैं खुद ले कर आ रहा हूं।‘‘ प्रकाशक महोदय अमित जी ने पुस्तक की छपाई पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा।‘‘

‘‘ ठीक है, ले आओ। मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा।‘‘ 

मेरा मन प्रफुल्ल्ति था कि मेरी पहली किताब छप गई है और प्रिटिंग मशीन से उतर कर घर आ रही है। ड्राइंग रूम में इस तरह चहल कदमी करने लगे मानों कोई नई नवेली दुल्हन घर आ रही है। कभी मैं ड्राइंग रूम का पर्दा हटा कर बाहर सड़क की तरफ देखता तो कभी धीरे से दरवाजा खोलकर ताकता कि कहीं कोई घंटी तो नहीं बजा रहा। खैर एक घंटे के इंतजार के बाद प्रकाशक महोदय की बडी सी गाड़ी गेट पर आकर रुकी। मैंने फौरन नौकर से किताबों का पैकट गाड़ी से लाने को कहा और खुद प्रकाशक को साथ ले ड्राइंग रुम में बैठ गया।

नौकर ने जैसे ही सेंट्रल टेबल पर किताबों का बंडल रखा तो अपनी बेसब्रीर को उघाड़ते हुए कागज के पैकेट के एक हिस्से को फाड़ तेजी से एक किताब खींच ली। अपनी पहली कृति काॅफी मंथन को बड़े ध्यान से देखा। उसके सभी अध्यायों पर समीक्षत्मक नजर डालने लगा। 

प्रकाशक महोदय जोश भरे अंदाज में बोले‘‘ क्यों भाई साहब, छपाई पसंद आई। जैसा आपने आदेश दिया था वैसी ही छपी है।

मैंने कुछ खास ही अंदाज में कहा ‘‘ बहुत पसंद आई‘। आपने तो कमाल ही कर दिया। अब आप से और क्या उम्म्ीद करूं।‘‘ पास ही बैठी अर्धाग्ंग्नी मेरे इस तंज को समझ गई्रं और बोलीं - आप ऐसे व्यंग्य से क्यों कर रहे हैं। आपकी पहली किताब छपी है। प्रकाशक महोदय खुद लेकर आए हैं। इनका मुंह मीठा कराईये।

मैंने झटके से कहा ‘‘ क्यों नहीं! इन्होंने तो पूरी की पूरी किताब ही उल्टी छाप दी है।‘‘ 

‘‘क्या! किताब उल्टी छाप गई है ? पत्नी चैंक कर बोली।

‘‘ हां केताब उल्टी ही छप गई है।‘‘ मैने फिर से थोड़ा तल्खी से कहा। 

पत्नी ने मेरे हाथ से किताब लेकर उस पर नजर डाली। एक, एक पन्नाा ध्यान से देखा। हैंडिंग नीचे और मैटर ऊपर। सभी रेखा चित्र भी उल्टे थे। प्रकाशक महोदय ने भी देखा और गलती मानी। पर ढांढस देते हुए कहा कि सब ठीक हो जाएगा। आप चिंता न करें।

तभी पत्नी ने पैकेट से दूसरी किताब निकाल कर देखी और बोली- अरे! यह तो ठीक छपी है। अच्छी लग रही हैं। जैसा आप चाहते थे वैसी ही छपी है। प्रकाशक ने भी एक और किताब बंडल से उठा कर देखी और चहके ‘‘यह भी ठीक है।‘‘

पत्नी ने फौरन एक के बाद एक पांच किताबों का मुआयना कर डाला। सभी ठीक थीं । छठी किताब देखने के लिए मैंने जैसे ही किताबों के बंडल की तरफ हाथ बढ़ाया तो प्रकाशक महोदय ने तेजी से उचक कर मेरा हाथ थाम लिया और बोले- ‘‘भाई साहब! आप रहने दीजिए वरना किताब फिर उलटी छप जाएगी।‘‘ 

मैने मनमसोस की अपनी बढ़ा हुआ हाथ पीछे खींच लिया। हमारी मैडम बारी बारी से सभी किताबों का मुआयना करती रहीं। बंडल से निकली पहली किताब को छोड सभी किताबों की छपाई ठीक थी। उसका आवरण, रेखा चित्र और सम्पूर्ण साज सज्जा सुंदर थी।

जब सभी किताबे जांच ली गईं तो प्रकाशक महोदय ने अपनी बत्तीसी दिखाते हुए कहा - ‘‘भाई साहब अब आप भी किताबें देख लीजिए।‘‘ अपनी झुंझलाहट दबाते हुए मैॅने कहा-‘‘ अब मैं कया देखूं , घूंघट तो उतर ही गया है। सब ठीक है तो आप को बधाई। पत्नी ने प्रकाशक महोदय के स्वागत में जलपान सजा दिया था। प्रकाशक महोदय बंडल से निकली पहली किताब के उलटी छपी होने के हादसे से उबर नहीं पाए थे। लड्डू खाते हुए बोले -

‘‘ भाई सहब मेरे लिए अभी तक यह पहेली है कि पैकेट की पहली किताब उलटी छपी हुई कैसे निकली ?‘‘ ‘‘ मैंन खुद सबसे ऊपर की किताब अच्छी तरह से देख कर ही आप को फोन किया था। लेकिन आपने हाथ लगाया तो किताब उलटी छपी हुई निकली।‘‘

मैं तुनकर कर बोला -‘‘ अमित जी, आप ने हाथ लगाया‘‘ से क्या मतलब ं? ‘‘क्या मेरे हाथ में कोई जादू है जो सीधी चीज को उलटा करदेगा।‘‘

‘‘ नहीं नहीं , मेरा मतलब यह नहीं है। फिर भी मैं अभी तक यह बात समझ नहीं पा रहा हूं।‘‘ अमित जी यह बात कहते हुए तेजी से ड्राइंग रूम से बाहर खिसक लिए।‘‘

पत्नी ने आंखे तरेते हुए कहा- ‘‘ आप भी तो बस - - -‘‘ 

तभी मित्र मुसद्दी लाल ने ड्राइंग रूम में प्रवेश करेत हुए कहा,‘‘ पंडितजी, पहली किताब ‘काॅफी मंथन‘ के लिए बधाई।‘‘ ‘‘ अब तो आप पत्रकार होने के साथ साथ लेखक की श्रेणी में भी आ गए।‘‘

ठीक है, ‘‘बोलो क्या पीयोगे?‘‘ 

मुसद्दीलाल ,‘‘ गर्मी बहुत है, चिल्ड ही चलेगा।‘

‘‘ पर यह गम्भीर मुद्रा क्यों ?‘‘ 

‘‘ और यह हाथ पकड़ कर क्यों बैठे हो ?‘‘

‘‘ अभी अभी प्रकाशक महोदय मेरी किताबों का पैकेट देकर गए हैं। पहली किताब पैकेट से निकाली तो उलटी छपी निकली। बाकी किताबंे पत्नी और प्रकाशक महोदय ने जांची तो ठीक छपी हुई निकलीं। प्रकाशक महोदय इशारे में कह गए कि तिवारी जी आप के हाथ में जादू है। सीधी चीज उलटी हो जाती है।‘‘ उन्होंने मुझे किताबें तभी हाथ लगाने दीं जब सभी किताबों को जांच परख लिया।

प्रकाशक महोदय यह कह कर तो खिसक लिए पर तभी से मैं अपने हाथ का मुआयना कर रहा हूं। किसी दूसरी जीच को छूने का मन नहीं कर रहा। अब तुम आ गए हो मुसद्दी तो तुम पर ही ट्राई मारा जाए!!‘‘ थोड़ी देर के लिए मैं अपना सीधा हाथ तुम्हारी आईंस्टाइन खोपड़़ी पर रख देता हूं। देखते हैं क्या असर होता है।‘‘

मुसद्दी, ‘‘पंडितजी, यह तो मेरे साथ सरासर अन्याय होगा। मैं तो सोफे पर दूर एक कोने में बैठा हूं । आप के पास तो भाभीजी खड़ी हैं। अगर हाथ की ट्राई वहीं -----!! तो जल्दी पता चल जाएगा!‘‘ 

‘‘मुसद्दी ! कहीं तुम्हारा दिमाग दीवालिया तो नही हो गया!‘‘

पत्नी की तरफ कनखियों से देखते हुए मैंने मुसद्दी से कहा -‘‘ यदि इस ट्राई के चक्क्र में कुछ उलटा-पुलटा हो गया तो ‘काॅॅफी मंथन‘ के प्रकाशन के उपलक्ष्य में शाम को क्लब में रखा डिनर ‘ टोटल फास्टिंग‘ में बदल जाएगा। पानी भी नसीब नहीं होगा। तुम क्या चाहते हो? 

मुसद्दी, ‘‘ तो फिर भाई जान! इस हाथ के हादसे को भूल जाओ और डिनर समारोह की तैयार में जुट जाओ।‘‘ 

My First Book by Vibhavasu Tiwari

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