गीत लयात्मक अर्थध्वनियों का सुदृढ़, जीवंत और सारगर्भित ताना-बाना है— एक ऐसा ताना-बाना जो जड़ और चेतन की आलोकमयी व्याख्या उपस्थिति करने के लिए समय की पीठ पर सवार होकर समय की वल्गाओं को इस प्रकार से थामे रहता है कि भावकों को विचार और संवाद की लोकतान्त्रिक यात्रा की सघन अनुभूति हो सके। अनुभूति की इस सार्वभौमिक प्रक्रिया में आने वाले पथ और पड़ाव कवि के जीवनानुभवों में जब अपना आकार लेते हैं तब उसके "भीतर से एक सारा देश, एक सारा युग बोलता है" और तब उसकी "रचना उस बड़े छतनार वृक्ष-सी मालूम होती है जो देश के ह्रदय-रूपी भूतल से उत्पन्न होकर उस देश-भर को आश्रय-रूपी छाया देकर खड़ा हो" (रवीन्द्रनाथ, प्राचीन भारत, पृष्ठ 1-2)।
चर्चित युवा गीतकवि योगेंद्र प्रताप मौर्य के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का सामाजिक-सांस्कृतिक महत्त्व उपर्युक्त भूमिका के सन्दर्भ में देखा जाना समीचीन लगता है। शायद इसीलिये योगेंद्र जी अपने नवगीत संग्रह— "गीत हौसले हैं" (श्वेतवर्णा प्रकाशन) के शीर्षक गीत में अत्यंत विश्वासपूर्वक कहते हैं— "गीत लड़ेंगे/ गीत जियेंगे/ गीत बनेंगे ढाल।/ एक उष्णता, नमी गीत में/ गीत हौसले हैं/ आँधी-पानी, धूप सह रहे/ अड़े घौंसले हैं/ काटेंगे/ दुनिया में फैले/ अन्यायों के जाल।" यानी कि आज के इस विकट समय में "अन्यायों के जाल" काटने के लिए जो हौसला, जो लड़ाई, जो संघर्ष अपेक्षित है, वह गीत-रूपी शब्द-शक्ति से सर्वथा सम्भव है। किन्तु इसके लिए एक शर्त भी है— "हर चेहरा गीतों की भाषा/ खुलकर बोलेगा/ गीतों में निहित अर्थों की/ परतें खोलेगा।" यहाँ "हर चेहरा" से तात्पर्य समाज में रहने वाले प्रत्येक वर्ग व समुदाय के प्रत्येक व्यक्ति की सकारात्मक भागीदारी का सुनिश्चित होना है। यदि ऐसा हुआ तो एक संस्कारवान एवं सुदृढ़ समाज का निर्माण होना तय है— यही तो कवि का विजन है।
लोकभाषा तथा आंग्लभाषा के बहुप्रचलित शब्दों का संतुलित प्रयोग कर नयी चेतना तथा नयी भाव-भूमि को उद्घाटित करने वाले योगेन्द्र जी भावुक मन के सहज कवि हैं। उनके व्यक्तित्व की यह सहजता बालपन की मोहक चितवन एवं निश्छल प्रेम की अनुभूति कराती है— “सहज जिंदगी/ में क्यों आये/ मुश्किल अड़चन/ जैसे बने/ सहेजें वैसे/ बच्चों का बचपन/… समझ सकें सब/ भाव-वेदना/ दिल की धड़कन" (बच्चों का बचपन)। इसका एक अर्थ यह भी है कि इस जड़ संसार में 'दिल की धड़कनों' में धड़कता प्रेम ही चेतन, चिरंतन और चिदानंद है— बचपन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। शायद इसीलिये वह वर्तमान जीवन स्थितियों से उपजी पीड़ा और अवसाद का शमन करने और चुप्पियों को तोड़ने के लिए प्रेमपूरित हृदय से मधुर राग छेड़ते हैं और संवेदना एवं सृजन के परिवर्तनकामी बीज बोते हैं— "नये सिरे से/ चिंतन करना/ और सोचना होगा/ जल, जमीन, जीवन की खातिर/ राह खोजना होगा/ सच्चाई को/ करना होगा/ आज हमें स्वीकार" (नये-नये औजार)।" मनुष्यता के संस्कारों से लैस इस सहज स्वीकारोक्ति में समकालीनता का पुट स्पष्ट दिखाई पड़ता है। युवा कवि शुभम श्रीवास्तव 'ओम' का भी यही मानना है— "योगेन्द्र प्रताप का लोक वास्तव में ग्रामीण अधिक है, किन्तु वह साम्प्रतिक विषयों पर भी चुप्पी तोड़ते दिखाई देते हैं।"
नवगीत के रसिक यह जानते ही हैं कि इक्कीसवीं सदी में (विशेषकर प्रथम दशक के उत्तरार्द्ध से लेकर अब तक) नवगीत की नयी पीढ़ी की सशक्त उपस्थिति दर्ज हुई है। इस पीढ़ी में जहाँ कम आयु के रचनाकार हैं, वहीं बड़ी उम्र के रचनाकार भी हैं। इनमें कई तो ऐसे भी रचनाकार हैं जो प्रौढ़ावस्था में या उसके भी बहुत बाद की उम्र में नवगीत के क्षेत्र में आये और वर्तमान में अपनी रचनाधर्मिता से साहित्य जगत को चमत्कृत कर रहे हैं। इस नयी आवत में संघर्ष और जिजीविषा के साथ प्रतिरोध और प्रतिबद्धता का विराट दर्शन करती रचनाओं के अप्रतिम कवि योगेन्द्र प्रताप मौर्य की बहुत ही कम समय में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। और क्या कहूँ? इसलिए यहाँ अपनी लेखनी को विराम देते हुए बाबा तुलसीदास जी के शब्दों में बस इतना ही— "केसव! कहि न जाइ का कहिये।"
'Blurb' to 'Geet Hausale Hain' (Poet: Yogendra Pratap Maurya) by Abnish Singh Chauhan
ब्लर्ब पर आशीर्वाद स्वरूप शब्द पाकर अभिभूत हूँ।आपका आत्मीय धन्यवाद एवं आभार भैया!
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